पाठकों के लेख एवं विचार

*उसकी हथेलियों में कैद परिंदा मैं ही था ….??* लेखिका तृप्ता भाटिया*

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उसकी हथेलियों में कैद परिंदा मैं ही था ….?? फड़फड़ाया तो बहुत पर उन हाथों से प्रेम था उड़ान भरने की चाहत ही न हुई!ओ

कोई गुलाबी शाम थी उसकी आंखें चमक उठी कोई ….कोई नन्हा ख्वाब जैसे झिलमिला उठा हो जैसे दिवाली पर लगी ढेरों लाइटें एक साथ जल उठी हों और सैकड़ो सूरज इस चमक में शामिल कर रहे हो अपनी रोशनी …..वो दोनों हाथों की हथेलियों के बीच कोई परिंदा बंद किए बैठी थी ….वो परिंदा जो सबसे ज्यादा उसका था ..खुद से भी ज्यादा रटता था उसके सिखाए शब्द… ना जाने क्यों उसका लहजा हू ब हू मुझसे मिलने लगा था वो हर काम उसके मन मुताबिक करता था…वो परिंदा जिसने कभी नहीं सुनी थी अपनी आवाज ना फड़फड़ाए थे कभी पंख अपने मनमुताबिक उड़ने को ….जिसकी आजादी ही कफ़स थी उसके लिए… उसके पैरों में नहीं थी कोई बेड़ियां वो स्वछंद था….फिर भी आकाश की बेबाक उड़ाने नहीं ललचा पायीं थी उसे यूँ तो परिंदों की फितरत होती है उड़ जाना फिर ना जाने क्यों वो खामोश रह सिमट आया था उसकी हथेलियों में …..वो हल्की मुस्कुराई जैसे कोई मद्धम बौछार आसमां से एकाएक झांकी हो दोपहर की तेज़ तपिश में ..बेहद प्यारी हंसी थी उस लड़की की होती भी क्यों ना 17 सावन की मासूमियत भी उसमें 8 बरस के बालक जैसी थी । ऐसा क्यों होता है ? वो क्यों हो जाता है ? ऐसा भी होता है भला? दिन भर इन्हीं सवालों में जूझता था मैं
पर सवाल सवाल ना होकर सुकूँ थे मेरे लिए..
सहसा उसने परिंदे को हथेलियों से आज़ाद कर दिया मैं एकाएक छिटक गया…एक डर मन मैं पैर पसारने लगा … ना जाने ये उड़ान मुझे असहज क्यों कर रही थी ….परिंदा उड़ा और आसमान के कुछ चक्कर लगा सहज हो उसके कंधे पर आ बैठा मैं अवाक था…वो हैरत और असमंजस से कभी उसे देखती तो कभी सवालिया नज़रो से मुझे ….ये कैसे मुमकिन था कि परिंदे उड़ानों से ज्यादा आशियां से इश्क़ करने लगें ….ये कोई तिलिस्म था क्या …या उसकी हथेलियों मैं कैद परिंदा मैं ही था ….??

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