*दरकते पहाड सिसकती नदिया:- निवेदिता परमार*
दरकते पहाड सिसकती नदिया ।
आज मुझे 2007 की यादे सीने को छलनीं कर रही हैं ।काश किसी ने स्वर्गीय श्री प्रेम भारद्वाज की मन से निकली कविता के द्वारा प्रकृति को बचाने की गुहार पर गौर किया होता ।प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ साथ प्रकृति प्रेमी भी थे।उनका कहना था कि पहाड़ का सीना छलनी मत करो वरना यदि नदिया सिसकी तो तबाही का मंजर हर तरफ़ होगा ।आज उनकी पक्तिया याद आई।
मत कोसो भगवान को अभी भी हमे सुधरने का मौक़ा हैं।पर्वतों को हिमाचल की शान रहने दो ।नहीं चाहिये ऐसी तरक़्क़ी।
मुझे नहीं छूना ऊचाई को ।मुझे कल कल करती नदिया ही अच्छी हैं।तवाही का मंजर मत बनने दो ।आधुनिकता की दोड़ में ख़ंजर मेरे सीने में घोंपने से क्या उम्मीद करोगे ।रहने दो मुझे भोला भाला हिमाचल ।ज़िंदगी इतनी गतिमान ना हो जाए कि दोड़ने वाला ही ना हो ।नहीं लगानी मुझे रेस पिछड़ा ही रहने दो ।जिस तरक़्की में ज़िंदगी दाव पर लग जाये ।हिम को पहाड के आँचल में रहने दो ।
निवेदिता जी! आपने बहुत ही स्टीक लिखा कि जिंदगी इतनी गतिमान न हो जाए कि दौड़ने बाला ही कोई न रहे और ये विनाश गति को बढ़ाने और कंस्ट्रक्शन के लिए प्रकृति से छेड़ छाड़ का नतीजा ही तो है, इन दोनों ही चीजों के लिए पेड़ों को अंधाधुंध काटने के साथ साथ लोगों और सरकार ने धरती पर जो सितंब्ब ढाए हैं नदी नालों के जो रास्ते रोके हैं उन्हीं गुनाहों की सजा मिल रही है , हमारा ही रास्ता कोई रोक दे या उसकी चौड़ाई कम कर दे तो हम झगड़ पड़ते हैं , पटवारी बुला लेते हैं तो नालों , खडो और दरियाओं का रास्ता जब रोका गया और इनके द्वारा अपना रास्ता छुड़ाया गया तब हमें तकलीफ तो जरूर हुई मगर अंदर ही अंदर हमने नदियों की सिसकाहट के साथ साथ सचाई भी महसूस की , गति बढ़ाने के लिए ही पहाड़ों को इस प्रकार फोड़ा गया कि अब ये सिलसिला आने वाले कई सालों तक रुकने वाला नहीं है क्योंकि जब ब्लास्टिंग होती है तो जरूरत बाला पत्थर ही नहीं टूटता सारी पहाड़ी की चट्टानों की पकड़ भी आपस में छूटती है तभी तो पहाड़ दरक रहे हैं , अब भी परोर से मंडी तक न छेड़ें जो है उसी को ही व्यवस्थित करे गति को बढ़ाने में जिंदगी भी गतिमान न हो जाए इस बात का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा
Dr.Lekh Raj