

बहुत से सच ऐसे होते है जिन्हें हम बहुत पहले से जानते है पर कभी इसलिए नही कहते, कि सामने वाला जिसके साथ हमारा करीबी रिश्ता है उसे बुरा न लग जाएं, उस बुरा न लगने के पीछे भी हमारी अपेक्षाएं होती है ,हम निभाना चाहते है, हम नही चाहते कोई बात उम्र भर के लिए मनभेद बन जाएं,हम अंदर ही अंदर जख्मी हो जातें पर हम एक आह भी नही भरते बस यही सोच रहने देते कौन सा कह देने से वक़्त वापस आ जाएगा, गुजरा हुआ ठीक हो जाएगा, दूसरा गलत है तो उसका अनुभव उसकी समझ है पर हम क्यों गलत बने, क्यों गलत कहें ! रिश्ते निभाने से निभते है तोड़ने से टूट भी जातें, लेकिन कब तक एक तरफ से निभाया जाने वाला रिश्ता झुकता रहे, कितना झुके की टूटने से बच जाए, कितना निभाएं की मनभेद न हो । झुका हुआ पेड़ भी एकदिन तेज तूफानों में लचक की वजह से जल्दी टूट जाता है और झुके हुआ इंसान अपना आत्मसम्मान खोकर एकदिन खुद को खो देता है,वो अपेक्षाएं जिनके लिए संघर्ष होता है कई बार वो खुद के लिए जहर बन जाती है और हमे एहसास होता है कि हमने अपनी हैसियत से ज्यादा चादर में पैर फैला लिए है, ये अपेक्षाएं जिन्हें हमने मनमुताबिक फर्ज कर्तव्य और संस्कार के धागों से जोड़ना चाहा है उनके रेशे बहुत कमजोर है, ये हमारी लाख कोशिशों के बावजूद चिटक रहे है, बारबार रफू करने से अब ये खूबसूरत नही लगते।इन्हें अब छोड़ देना चाहिए, इनमें संजोने लायक अब कुछ नही है इन्हें रखने से हमारा आत्मसम्मान और वजूद दोनो मिटे जा रहे ।