पाठकों के लेख एवं विचार

पाठकों के लेख लेखक *बलदेव शर्मा

Renu sharma

विश्वास के संकट में भाजपा और मोदी
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के परिणाम क्या रहते हैं यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। बहुत संभव है कि भाजपा की सरकारें न बन पाये। क्योंकि चुनाव के दौरान जो अब तक घट चुका है यदि उसका निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो यही प्रबल संभावना उभरती है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी चुनाव हो रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश का क्या स्थान है यह राजनीतिक समझ रखने वाला हर आदमी जानता है। यहां पर चुनावों की घोषणा के बाद ईडी की छापेमारी हुई और जब यह सामने आया है कि यह छापेमारी भाजपा के आदमी के घर पर ही हो गयी है तब इसे रफा-दफा करते हुए दूसरी छापेमारी सपा के आदमी पर हो गयी। इस छापेमारी का क्या राजनीतिक संदेश गया है इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। यहीं पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कोराना के कारण यह चुनाव कुछ समय के लिये टालने का फैसला दे दिया। अब सर्वाेच्च न्यायालय में भी इसी आश्य की एक याचिका चुकी है। यही नहीं भाजपा नेता पूर्व मंत्री वरिष्ठ अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय ने अब एक याचिका दायर करके सपा और आम आदमी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्रों में कई चीजें मतदाताओं को मुफ्त देने के वायदांे को रिश्वतखोरी/ नाजायज प्रलोभन करार देकर इन दलों की मान्यता रद्द करने की गुहार लगायी है। सर्वाेच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग केंद्र सरकार और इन दलों को नोटिस जारी कर दिये हैं। संयोगवश यह मुद्दे उठाने वाले लोग भाजपा की ही पृष्ठभूमि के हैं।
यह सही है कि चुनावों में इस तरह की मुफ्तखोरी के वादे और वह भी सरकारी कोष के माध्यम से सीधे रिश्वतखोरी करार देकर इस पर आपराधिक मामले दायर होने चाहिए और ऐसे दलों की मान्यता रद्द कर दी जानी चाहिय? लेकिन क्या यह मुद्दे उठाने का समय अब चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद ही है? क्या ऐसे वादों के दोषी यही दो दल हैं? जब 2014 में हर आदमी के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का वायदा किया गया था तब क्या वह जायज था? आज हर सरकार हर वर्ष कर मुक्त बजट देने की घोषणा के पहले या बाद में जनता पर करों का बोझ डालती है क्या यह जायज है? चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी के खर्च की सीमा तो तय कर रखी है लेकिन उसे चुनाव लड़वा रहे दल की को खर्च की सीमाओं से मुक्त रखा है क्यों? चुनाव आयोग हर चुनाव से पहले आचार संहिता की घोषणा करता है। लेकिन इस आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने पर आपराधिक मामला दर्ज करने का प्रावधान नहीं है। केवल चुनाव याचिका ही दायर करने का प्रावधान है। ऐसे बहुत सारे बिंदु हैं जिन पर एक बड़ी राष्ट्रीयव्यापी बहस की आवश्यकता है और तब चुनाव अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिये। लेकिन आज इस ओर कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से वायदा किया था कि वह संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। देश में ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था बनाने का भी भरोसा दिया था। लेकिन इन वायदों पर कुछ नहीं हुआ। यदि नीयत होती तो संसद में इतना प्रचंड बहुमत मिलने पर चुनाव अधिनियम में आदर्श संशोधन किये जा सकते थे। परंतु एक ही काम किया कि चुनावी बॉडस के लिये सारा तंत्र सत्तारूढ़ दल के गिर्द घुमाकर रख दिया।
इस परिपेक्ष में आज जो प्रयास किये जा रहे हैं उनकी ईमानदारी पर संदेह होना स्वाभाविक हो गया है। ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय से यही आग्रह रहेगा कि इन चुनावों के परिणाम आने के बाद राजनीतिक दलों की इस मुफ्ती रणनीति पर कड़े प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया जाये जो हर छोटे-बड़े दल पर एक सम्मान लागू हो। चुनाव लड़ने वाले हर व्यक्ति और राजनीतिक दल के लिये यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वह चुनाव में आने पर नामांकन के साथ ही राज्य या केंद्र जिसके लिये भी चुनाव हों वह आर्थिक स्थिति पर अपना पक्ष स्पष्ट करें और यह घोषणा करे की अपने वायदों को पूरा करने के लिये सरकारी कोष पर न कर्ज का बोझ डालेगा और न ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जनता पर करों का भार डालेगा। न ही सरकारी संपत्तियों का मौद्रीकरण के नाम पर प्राइवेट सैक्टर के हवाले करेगा। जैसा कि इस सरकार ने कर रखा है। आज स्थिति या हो गयी है कि यह सरकार किसानों से राय लिये बिना तीन कृषि कानून लायी। इन कानूनों के विरोध में आंदोलन हुआ। तेरहा माह चले इस आंदोलन में सात सौ किसानों की मौत हो गयी उसके बाद कानूनों को वापस ले लिया गया। स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा कि एमएसपी पर कमेटी बनायेंगे। किसानों के खिलाफ बनाये गये आपराधिक मामले वापिस लिये जायेंगे। लेकिन आज चुनावों के दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि इन वायदों पर अमल नहीं हुआ है। इस वादाखिलाफी की आंच चुनाव में साफ असर दिखा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब प्रधानमंत्री स्वयं घोषणा करके उस पर चुनाव के वक्त भी अमल न करें तो उसे कैसे लिया जाये। जब प्रधानमंत्री के वायदों पर ही विश्वास न बन पाये तो सरकार और पार्टी पर कोई कैसे विश्वास कर पायेगा? आज प्रधानमंत्री और उनकी सरकार तथा पार्टी सभी एक साथ विश्वास के संकट में हैं और यह सबसे ज्यादा घातक है।

लेखक बलदेव शर्मा स्वतंत्र लेखक

Baldev Sharma

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