पाठकों के लेख :- लेखक हेमंत शर्मा
धोबी के कुट्टे–
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उत्तर प्रदेश के चुनाव बोले तो देश भर में चर्चा। तिस पर पंजाब ने भी रंग जमा रखा है। खैर कई नेता लोग अपने अपने हितों के हिसाब से कपड़ों की मानिंद पार्टियां बदल रहे हैं। मैनें देखा है कि इस प्रजाति के नेता ऐन चुनाव के समय ऐसा करते हैं। पार्टी सत्तासीन हो तो चुपचाप सत्ता सुख भोगते रहते हैं। पार्टी में पूछ न भी हो तब भी एक कोने में पड़े रहते हैं। चुनावों की घोषणा की देर होती है और इनका नाटक शुरू। अब कई नेता दूसरी पार्टी में भी मलाई पा जाते हैं लेकिन बहुतों के साथ बुरा होता है। उन्हें वहां भी तगड़ा लॉलीपॉप ही मिलता है। बंगाल विधानसभा के चुनाव में तृणमूल के ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त रही। उनकी हालत भी हम सभी ने देखी। खैर ऐसे तमाम नेता अंततोगत्वा धोबी के कुट्टे (कुत्ते नहीं) की गति को प्राप्त होते हैं। मतलब न घर के रहते हैं न घाट के। इसमें कुट्टे की जगह कुत्ता शब्द प्रचलन में हैं। लेकिन इन तथाकथित नेताओं को कुत्ता हरगिज नहीं कहा जाना चाहिए। चलो अभी धोबी के कुट्टे पर आते हैं। दरअसल धोबी जिस लकड़ी से कपड़े कूटता है उसे हमारे क्षेत्र में तो थापी कहते हैं। वाशिंग मशीन के आने से पहले हर घर में होती थी। कुछ राज्यों में इसे कुट्टा या कुतका भी कहते हैं। धोबी वाली लकड़ी ज्यादा भारी होती है। पुराने समय में धोबीघाट होते थे दूर। धोबी कपड़ों के साथ इसे रोज उठा कर नहीं ले जा सकता था। इसे धोबीघाट के आसपास ही छुपा कर रखा जाता था। मतलब ये लकड़ी न घर की रहती थी न घाट की। बाद में ये शब्द कुट्टा से कुत्ता हो गया। वैसे अंग्रेज लोग तो कुत्ते को भी कुट्टे ही बोलते थे। चलो जो भी हो लेकिन राजनीति के इन कुट्टों ने सारा माहौल खराब कर रखा है। पंबाजी में बोले तो इन्हानों कुट्ट (मार) पैणी चाही दी।
लेखक हेमन्त शर्मा
