*पाठकों के लेख: तृप्ता भाटिया की कलम से*


दिल से दिल तक।
छोड़ना हमारे हक में कब रहा है..? फिर चाहे वो सपने हों, जिम्मेदारियां, या फिर लोग। छोड़ने के बाद भी इनका कुछ न कुछ अंश बाकी रह जाता है हममें जैसे नेत्रों से अश्रुओं के सूख जाने के पश्चात भी बची रह जाती है उनमें हल्की सी नमी। ये कुछ अंश घर कर लेते हैं आपके हृदय में सदा सदा के लिए। आजीवन ये आपको याद दिलाते हैं कि छोड़ने से कुछ बेहतर किया जा सकता था मगर कहते हैं ना जब वक्त निकल जाए समझदारी अक्सर तब ही दरवाजा खटखटाया करती है। फिर हमारे पास रह जाता है केवल एक “काश” जिसकी अंगुली थामे हम जीने लग जाते हैं ये भूलकर कि हमें जीना कैसे था..?
मैने हमेशा से सीखा है सहेजना कुछ बेहतरीन लम्हें, मेरी प्रिय वस्तुएं, कुछ पुराने जर्जर हो चुके रिश्ते या फिर ,मिला हुआ दर्द और यहाँ तक कि तिरस्कार भी नहीं भुलाया…इन सब के बीच में मुझे ढूंढनी है सबसे जुड़ी हर स्मृति…खैर खुद से मन उकता गया है ना चाहते हुए भी क्या क्या सोच लिया । कोशिश कीजिए खुद को न खोने की बाकी दुनिया अस्थाई है, परिस्थितियां अस्थाई हैं, लोगो का भी जाना तय है शायद ही कोई रह जाए आपके साथ पर जो रह जाएं तो खुद को खुशकिस्मत समझिए और उन्हें सहेजना न भूलिए।
