पाठकों के लेख : बहुत सुंदर लेख

Tripta Bhatia

tricitytimes.com
जाड़ो की धूप होती थी
स्वेटर बुनती वो अधेड़ औरतें बुला लेती थी
मेरे हाथ में बैट होता था या बॉल और मुझे उनकी तरफ़ पीठ करके खड़ा होना होता था
मेरे कंधों से वो आधा बुना स्वेटर नापती थी
मुझे नहीं पता किसके लिए वो स्वेटर बुनती थीं
कौन जो मेरी कद ओ कामत के बराबर था
कोई अजनबी ही होगा। मेरी कन्धा उस स्वेटर से सुशोभित होने पर गर्व करता था ,अब तो हमारे कंधे इस्तेमाल किये जाते हैं ।
आज लोग मेरे कंधे नहीं नापते, मेरी कमाई, मेरा हौंसला, मेरा बजूद नापते हैं
उनकी सिलाइयाँ मुझे उनकी आँखों मे दिखती हैं
मेरे हाथ मे अब बैट की जगह कलम होता है।
बहुत कम लोग हैं जो बचपन से बनना चाहते हैं वो बड़े होकर वही बनते हैं। मुझे बनना कुछ था और हो कुछ गए हूँ। जो भी कीजिये ज़िन्दगी में बेहतर कीजिये
अब कोई आंटी स्वेटर नहीं बनाती वो नापने के स्पर्श और भावनायें जीते रहो नहीं रहीं हैं शायद आपकी पीठ और जहन में कोई ओर अब मुझे भी बना हुआ स्वेटर कहाँ मिलता है मेरा नाम भी कभी मेरी मासी मामी ने ऐसे लिया होगा।
जिन्होंने सुरक्षा करनी है उन्होंने जातियाँ धर्म बुनने शुरू कर दिया और फ़िज़ाओं में ज़हर घोल रहे उनकी कलम ख़ंज़र बन चुकी है भले ही वो खुद को पत्रकार बोलते हों।अब बुनना छोड़ दिया सबने और उधेड़ना शुरू किया है।😊🙏