*बहू बेटियों का पीड़ा दायक अनुभव :लेखिका तृप्ता भाटिया*
*बहू बेटियों का पीड़ा दायक अनुभव :लेखिका तृप्ता भाटिया*
चौदाह पंद्रह साल की होगी शायद पहली बार पीरियड्स (मासिक धर्म ) हुआ होगा और इसके बारे में जानकारी नहीं होगी ।
बस में एक लड़की देखी कपड़ों पर दाग सा था सीट नही मिली छुपाने की कोशिश में थी पर पर्याप्त कोई चीज़ न थी । मेरी नज़र पड़ी मैंने उसे अपने साथ कवर कर दिया डर सा लग रहा था कि कोई बात करूं की नहीं। सोचा पूछ लूँ जानकारी है कि नहीं!
देखा होगा क्लास में ख़ुद से बड़ी लड़कियों को घर में कज़िन्स को परंतु जानकारी अलग बात है और अनुभव अलग…और अनुभव सबके अलग अलग ही होते हैं ।
मुझे उसके चेहरे पर नज़र आई दर्द और ऐंठन ने अधमरा कर दिया हो ऊपर से पहली बार के स्त्राव की वो अजीब सी फ़ीलिंग जो मेंटली टॉर्चर कर रही थी।
कपड़े की पैडिंग को सम्हालने की दिक़्क़तें अलग… रंग पीला पड़ गया था और होंठ पपड़ा गये थे ।
जब बात शुरू की तो बोलती माँ से बताऊंगी डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा मुझे …
मेरी कल्पना पढ़िए आप
पूरे ग्यारह दिन पीड़ा को झेलेगी … वो ग्यारह दिन वो घर से नहीं निकलेगी अपनी ग्यारह दिन स्कूल नहीं जाएगी, साइकिल नहीं चलाएगी बाहर नही खेलेगी।
अब यह दुश्मन उसका हमेशा रहेगा जिसके गुजरते गुज़रते उसकी हालत महीनों से बीमार जैसी हो जाती रहेगी..स्कूल कॉलेज ट्यूशन अॉफिस सबसे छुट्टी की हमेशा उस पहले दिन कभी कभी दो दिन भी …भविष्य में लगा रहेगा क्योंकि उसे उन मुश्किल दिनों में छुट्टी चाहिए होगी जिसमें हालत ही नहीं होती कि काम करने की
दिन ज़्यादातर बिस्तर में गुज़रेगा हॉट वॉटर बैग के सहारे …और प्रीपीरिड्स घुटन चिढ़न और मूड स्विंग्स का आलम ये है कि हर बार किसी ने किसी से अकारण ही झगड़ा हो जाता है जिस पर बाद में केवल पछताना होता है जिसे कोई समझ नहीं पायेगा।
…सुना है 60% महिलाओं को पीरिएड्स की इंटेंस तकलीफ़ होती है बाक़ी कुछ के लिए थोड़े कम मुश्किल होते हैं ये मुश्किल दिन…
इतनी परेशानियों से गुजरने और गुजरते रहने के बाद जब किसी सिरफिरे बीमार मानसिकता वाले पुरुष को स्त्रीगत समस्याओं स्त्रीगत संघर्षों का मज़ाक़ बनाते इस पर होने वाली बातचीत पोस्ट्स आदि पर ऊल जलूल कमेंट करते दाँत फाड़ते देखती हूं तो ख़ून खौलता है ।
कहाँ से लाते हैं इतनी असंवेदनशीलता आप लोग… घर जाइए अपनी माँ से बहन से पत्नी से बेटी से जानिए उनकी पीड़ा उनके अनुभव पढ़ने की कोशिश कीजिए उनके चेहरे उन विशेष दिनों में जब वे रेग्युलर से कुछ अलग सा व्यवहार करती दिखाई दें आप लोग सपोर्ट नहीं सकते तो ना करें मगर मज़ाक़ बनाकर उन्हें वितृष्णा से न भरें कृपया ..मानव सभ्यता के विकास के इतने लम्बे समयांतराल के बाद अगर वो बोलने लगी हैं अपनी समस्याओं पर लड़ने लगी हैं अपने लिए तो लड़ने दीजिए और जिन अधिकारों के लिए वो लड़ रही हैं वो ग़ैर वाजिब तो नहीं वो उन्हें मिलने ही चाहिए मनुष्यता में आपके समकालीन आपके बराबर होने के नाते बल्कि विशेषाधिकार मिलने चाहिए क्योंकि वो आपसे ज़्यादा सफ़र कर रही हैं हर महीने की इन समस्याओं से आप नहीं जूझते अपने शरीर के किसी हिस्से को 9-10 सेमी तक खोलकर आप बच्चे को जन्म नहीं देते रीढ़ की हड्डी में एनेसथीसिया लगवाकर सी सेक्शन ऑपरेशन कराके आप अपने शरीर को कटवाकर उसमें टाँके नहीं भरवाते न बाद के ज़िन्दगी भर के उसके इफ़ेक्ट्स को झेलते हैं तो आपको कोई हक़ नहीं बनता स्त्री समस्याओं उनके संघर्षों को फ़ेक कहने का उनका मज़ाक़ बनाने का।
मेरी कल्पना बहुत आगे तक गयी फिर लौट आयी कि शायद ही कोई समझेगा उसका चेहरा मेरी आँखों आगे आज भी घूमता है जिसे मैंने बस में दो साल पहले देखा था! 😊