*ना जाने उम्र का कौन सा दौर है* संजीव थापर पूर्व चुनाव अधिकारी
ना जाने उम्र का कौन सा दौर है
कि अपनी जिंदगी के पन्नों को बार बार पढ़ने का मन कर रहा है । बचपन से ले के लड़कपन और जीवन के संघर्षों से जूझते से ले कर आज बुढ़ापे की चादर पर पांव पसारे बैठे आंखे बन्द किए सभी दृश्य चलचित्र की मानिंद
स्मृतिपटल से इतराते बलखाते निकल कर अपनी झलक दिखा कर फिर कहीं अंधेरों में गुम हो रहे हैं मानों छुपन छुपाई का खेल खेल रहे हों । तभी कुछ जानी पहचानी आवाज़ें सुनाई दी हैं ” काकू आ जा बाहर पिट्ठू खेलते हैं ” यह क्या यह तो मेरे बचपन के दोस्तों की आवाजें हैं जो मुझे घर से बाहर आ कर हमारा मनपसंद खेल पिट्ठू खेलने के लिए बुला रहे थे और मैं उनकी आवाज पे एक ही छलांग से घर से बाहर था और मां की आवाज कि अभी स्कूल से आया है कुछ खा के जा वहीं कहीं विलीन हो गई थी मानों उसका कहीं वजूद ना था । यह क्या मुझे अपनी आंखों में कुछ जल सामान द्रव्य भरता महसूस हो रहा है जो द्रवित हो शायद गालों पर आ गया है । आज ना जाने क्यूं एक गाने के बोल मेरे मुख पे आ गए हैं , ” बीती हुई
बतीयां कोई दोहराए , भूले हुऐ नामों से कोई तो बुलाए ……..”
अब भला उम्र की इस दहलीज में मुझे “काकू” नाम से कौन बुलायेगा ? दोस्तो इस नाम को सुने मुझे बरसों हो गए हैं । अब मेरे बचपन के दोस्त तो ना जाने इस जिंदगी के झंझावतों से मुकाबला करते कहां हैं किंतु यह नीचे दी गई तस्वीर में मेरे कुछ नए मित्र हैं किंतु ये भी मुझे मेरे भूले हुए नाम से कभी नहीं पुकारते शायद हमारी मित्रता में एक “झिझक” का फासला है जो संभवत सभी फासलों से बड़ी और लंबी है ।