*जमानत_नियम_है_और_जेल_अपवाद* editorial by Mahendra Nath Sofat.
12 अगस्त 2024-(#जमानत_नियम_है_और_जेल_अपवाद)–
उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली की कथित आबकारी नीति घोटाले मे भ्रष्टाचार और धनशोधन के मामले मे अलग-अलग दर्ज मुकद्दमों के आरोपी आम आदमी के वरिष्ठ नेता एवं दिल्ली के पूर्व उप- मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को शुक्रवार को सशर्त जमानत दे दी। स्मरण रहे सिसोदिया 17 माह बाद जेल से बाहर आए है। हालांकि कोर्ट द्वारा उन्हे जमानत देने का यह अर्थ कदाचित नहीं है कि वह निर्दोष है। उनके दोषी होने या निर्दोष होने का निर्णय अदालत द्वारा किया जाएगा। शुक्रवार को मनीष सिसोदिया को जमानत देते हुए न्ययामूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने एक बार फिर कानून की इस अवधारणा को दोहराया है कि “जमानत नियम है और जेल अपवाद है”। उन्होंने हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट से इस नियम का पालन न करने के लिए नाराजगी भी व्यक्त की है। मै मनीष सिसोदिया निर्दोष है या नहीं इस पर टिप्पणी करने मे सक्ष्म नहीं हूँ, लेकिन इस विषय मे कानूनी परिभाषा है कि जब तक कोई अपराधी साबित न हो जाए उसे निर्दोष समझा जाना चाहिए। काबिले गौर है किसी की जिन्दगी मे 17 माह का समय लम्बा और महत्वपूर्ण होता है। निश्चित तौर पर बिना कसूर साबित हुए किसी को भी इतने लम्बे समय तक जेल मे रखना उसके मानवीय अधिकारों का उल्लंघन है।
हमारे संविधान मे प्रत्येक नागरिक को व्यक्तिगत लिबर्टी की गारंटी दी गई है, इसलिए किसी को भी बिना ट्रायल अनिश्चितकाल के लिए जेल मे रखना गलत है। मेरी समझ मे जमानत देना लगभग कोर्ट के विवेक पर निर्भर करता है। जमानत के मामलो में अलग-अलग जज अलग-अलग रूख रखते है, जबकि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले मे सभी अदालतों के लिए मापदंड तय करने चाहिए ताकि कोर्ट उन्ही मापदंडो के आधार पर अपने विवेक का इस्तेमाल करें। जघन्य अपराधों को छोड़कर जमानत के मामले मे अदालतों का रूख नरम होना चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे विचाराधीन अपराधी बंद है जिन्होने अपने ऊपर लगे आरोपों पर होने वाली अधिकतम सजा से भी अधिक सजा जेल मे काट ली है। सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेते हुए ऐसे अपराधियों को रिहा करने के आदेश पारित करने चाहिए। कुल मिला कर हमारी न्याय प्रणाली मे बहुत से सुधारों की आवश्यकता है और इसके लिए सरकार और सुप्रीम कोर्ट को मिल कर आगे बढ़ना होगा।
#आज_इतना_ही।