

बोरवेल हादसे: लापरवाही और उदासीनता का दुष्परिणाम

दौसा में मासूम की मौत की घटना से प्रदेश अभी उबरा भी नहीं था कि कोटपूतली के सरुण्ड थाना क्षेत्र में तीन साल की बच्ची चेतना के बोरवेल में गिरने की खबर ने फिर से चिंताओं को गहरा कर दिया। यह घटनाएं केवल हादसे नहीं हैं, बल्कि हमारी व्यवस्थागत विफलता और प्रशासनिक उदासीनता का क्रूर प्रमाण हैं। दौसा में 50 घंटे से अधिक समय तक रेस्क्यू ऑपरेशन चला, लेकिन मासूम को बचाया नहीं जा सका। इसी तरह, कोटपूतली में भी चेतना को बचाने की कोशिशें जारी हैं। हर बार बड़े-बड़े अभियान और भारी संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यह सवाल बना रहता है कि आखिर यह स्थिति आती ही क्यों है?
दौसा हादसे के बाद प्रशासन ने सभी खुले बोरवेल को बंद कराने के आदेश दिए थे, लेकिन कोटपूतली की घटना बताती है कि ये आदेश केवल कागजों तक सीमित रह जाते हैं। ज़मीनी स्तर पर क्रियान्वयन की कमी और लापरवाही ही ऐसी त्रासदियों की मुख्य वजह है। बोरवेल का छोटा सा छेद बंद करने का खर्च ₹400 तक हो सकता है, लेकिन हर बार इसे नजरअंदाज किया जाता है, जिसकी कीमत मासूमों की जान से चुकानी पड़ती है।
प्रशासन की प्रतिक्रियात्मक कार्यप्रणाली पर सवाल उठना स्वाभाविक है। घटनाओं के बाद जागने वाला प्रशासन क्या समय रहते सतर्क नहीं हो सकता? बोरवेल खोदने वालों पर कार्रवाई करने और खुले बोरवेल को चिन्हित कर सील करने की जिम्मेदारी किसकी है? आदेश जारी करना काफी नहीं है; क्रियान्वयन और जवाबदेही सुनिश्चित करना जरूरी है।
समाज भी इस त्रासदी में अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकता। बोरवेल छोड़ने वालों की लापरवाही और स्थानीय लोगों की अनदेखी से ये हादसे बार-बार होते हैं। नागरिकों को प्रशासन के साथ मिलकर सतर्कता बरतनी होगी। स्थानीय स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने और पुलिस को अधिक सख्ती बरतने की जरूरत है।
यह घटनाएं हमारे लिए चेतावनी हैं कि मासूमों की जान बचाने के लिए केवल सहानुभूति और रेस्क्यू अभियान पर्याप्त नहीं हैं। इन हादसों को रोकने के लिए सख्त कानून और उनका पालन सुनिश्चित करना होगा। जब तक प्रशासन, पुलिस और समाज मिलकर जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब तक बोरवेल हादसों का यह सिलसिला जारी रहेगा।
“ये त्रासदियां हमारी लापरवाही का परिणाम हैं। अब जागना होगा, वरना हर बार मासूमों की जान यूं ही जाती रहेगी।”