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*हमारी रिवाजें, हमारी विरासत*:- घुमाई भाभी जी तुसां जो , घुमाई पारली चाची जी तुसां जो। *लेखक डॉ. लेखराज मारण्डा*

हमारी रिवाजें हमारी विरासत हैं। इन्हें सहेजना और संजोना हमारी जिम्मेदारी है।

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Dr. Lekh Raj Maranda: घुमाई भाभी जी तुसां जो , घुमाई पारली चाची जी तुसां जो

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जी ! लड़की की विदाई के समय ये शब्द या यूं कहो ये अपनी प्रकार की आज के समय के ” वाई वाई ” या ” टाटा ” हैं , हाजिर सभी मेहमानों या मेजवानो को रुला देते थे, हमारे कांगड़ा और खास कर पालमपुर उपमंडल में लड़कियों की शादी का एक अलग ही दृश्य होता था और ये था कोई पचास या साठ साल पहले , धीरे धीरे हम आधुनिकता की ओर बढ़ने लगे और सब काम जल्दी जल्दी में निपटाने लगे , बारात की वापसी तीसरे दिन शाम से दूसरे दिन शाम आ गई और समय ने ऐसी गति पकड़ी कि बारात सुबह जा कर शाम को वापिस आने लगी और अब तो ये काम कुछ घंटों में ही सिमट रहा है , चलो समय अनुसार बदलाव जरूरी भी था और अब तो है भी , पहले आने वाली बारात के लिए कहीं स्कूल या किसी के घर में ठैरने का प्रबंध किया जाता था जिसको ” डेरा ” कहते थे और बड़ी बात ये भी थी कि बारातियों को अपना विस्तर भी ऋतु अनुसार बांध कर घर से ही ले जाने पड़ता था और जाने का साधन मुख्यता ट्रक या बस होती थी और बहुत सारी जगह रेल भी एक जरिया था अगर रेल में जाए तब भी और बस से जाएं तब भी सुखपाल का प्रबंध लड़की बालों की तरफ से ही होता था और कई जगह बारात पैदल ही जाती थी और सुखपाल उठाने के लिए कहार होते थे ये भी प्रोफेसनल लोग थे इनकी और सुखपाल की बुकिंग भी पहले ही करवानी पड़ती थी क्योंकि सुखपाल भी किन्ही किन्ही घरों में ही होता था लेकिन एक बात थी आजकल की तरह इतनी शादियां नहीं होती थी और हां बोटी और कामों के साथ साथ पलड़ा ( रायता) बनाने के लिए लस्सी ( छांछ ) के लिए भी पहले ही खाली टीन उन घरों में छोड़े जाते थे जिन्होंने चार या पांच गाएं या भैंसें रखी होती थीं ,जैसे ही बारात डेरे पहुंची और हां अगर सर्दियों का मौसम हुआ तो पहले से ही आग के बड़े बड़े दो तीन अलाव मतलब ” घैहने “लगा कर रखे होते थे , गर्मी का मौसम हो तो पंखे बगैरा नहीं होते थे और डेरे पहुंचते ही चाय और साथ ही डूनू में सेमियां और मुंगरा आ जाता था लगभग सभी नीचे दरी पर बैठ कर ये खाते थे , लाड़े यानी कि दुहले के बैठने के लिए कमरे में दलीचा और पीठ पीछे गिद्दी दी जाती थी , इसके घंटे या दो घंटे बाद दुल्हन पक्ष से खाने के लिए बुलावा आता था जिसको ” सादा ” कहते थे और कोई स्ट्रीट लाइट नहीं होती थीं केरोसिन तेल से जलने वाले गैस होते थे दो या तीन आदमी बधू पक्ष से गैस ( केरोसिन ऑयल से जलने बाली लाइट जिसमें छोटे गुवार नुमा मेंटल लगा होता था और इसको साथ लगे पंप से प्रेशर देना पड़ता था और इसकी रोशनी बहुत दूर तक जाती थी )को कंधे पर रख कर बरातियों को लाइट करते थे और ऐसा ही वापिस छोड़ने का तरीका था , आंगन में पंक्तियां ( सफा )लगाई होती थीं और बड़े लोगों के यहां इनके ऊपर सफेद चादरें बिछाई जाती थीं ) में पहले से ही पतल और डूने लगा कर रखे होते थे , इससे पहले सभी बारातियों के मोस्मानुसार गर्म या ठंडे पानी से हाथ धुलवाए जाते थे और हां जैसे ही बारात पहुंचती थी बधू पक्ष से गालियां गाई जाती थी ये एक किस्म का अपनी तरह का मजाक होता था , वो भी एक रौनक के पल होते थे जैसे किसी का नाम लेकर या कोई रिश्ता लगा कर जैसे ” लाड़े दा चाचू सत्ता दिना दा भुखा ग्राहियां खूब लांदा खाना समापत होते ही एक बाटी और मसर्वे से बैठे बैठे ही हाथ धुला कर एक एक केला और सेब प्रत्येक बाराती को दिया जाता था , यथा योग्य दक्षिणा भी दी जाती थी , दो, पांच या दस रुपए ,इसके बाद दो लोग ट्रे पकड़े खड्डे रहते थे एक में सोंफ और चीनी और एक में खुले सिगरेट , पान और माचिस , दुल्हे को लगन के समय ही लाया जाता था फिर लगन समापत होते ही दूहले को दोवारा डेरे ले जाया जाता था फिर फिर से बेदी के समय लाया जाता था साथ पांच छे आदमी अपने नजदीकी रिश्तेदार रहते थे एक पटारी बाला और एक नाई , नाई के के पास नर्सिंगा बजाने का जिम्मा भी होता था ज्यादातर सेहनाइ और नगारों का ही रिवाज था , अब तो बात अंग्रेजी बाजा , डी जे और कई जगह तो कुछ स्पेशल आर्टिस्ट को भी बुलाया जाता है , सुखपाल की जगह बड़ी बड़ी लंबी और कीमती गाड़ियों के रुत्वे ने ले ली है और इन गाड़ियों की साज सज्जा पर ही लोग लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं.
अब एक और रिवाज भी खतम है चाहे बारात तीसरे दिन वापिस आती थी या दूसरे दिन शाम को वापिस आने लगी , गांव के लोग ( कोई भी एक परिवार ) सारी बारात को अपने घर बुला कर सुबह की चाय के लिए बुलाते थे और ऐसे ही कोई परिवार शाम की चाय पर बुलाता था, हां कुछ बारातियों के सोने का इंतजाम भी कई घरों में होता था ये सिर्फ उस समय का एक अपनापन था जो अब समयानुसार खत्म भी हो गया और जरूरत भी नहीं रही अब तो बारात जितनी मर्जी दूर जाए सभी के पास अपनी अपनी गाडियां हैं और लोग अपने ही घर आकर सोते हैं , अब तो लेडीज और बच्चे भी बारात जाते हैं उस समय ऐसा रिवाज नहीं था हां उस समय एक खास बात और भी थी कोई शराबी नहीं मिलता था और तब पहले बरातियों को खाना खिलाया जाता था उसके बाद बाकी रिश्तेदार , गांव के लोग खाना खाते थे , अब तो बारात को कोई डेरा नही सीधी एंट्री चाहे घर हो या मैरिज पैलेस और विडंबना ये है कि मैरिज पैलेस के बाहर तोते बाला तोरण नही होता तोरण कोई रिवाज नहीं ये एक बहुत बड़ी आस्था से जुड़ी एक जरूरी चीज है ये तोरण राक्षश से संबंधित एक रोक है और जो स्टॉल बगैरा या बाकी खाना कई बरातियों को मिलता ही नहीं लोग ऐसे टूटते हैं कि नजारा देखने बाला बनता है , चलो जी फिर पीछे चलते हैं , अब बारी आती है बारात के दोपहर के खाने की, इस बार भी वोही बात जब बैठने का सारा इंतजाम हो गया इसमें दुल्हे के लिए बैठने का खास इंतजाम एक चौकी जिस पर कोई छोटा कालीन बिछाया जाता था और सामने दूसरी चौकी पर पत्तल में खाना , तो फिर सादा और फिर बारात बैंड बाजे के साथ आ जाती और इस बार सुखपाल में दुल्हा भी साथ आता क्योंकि सारे लगचार के बाद दुल्हे को फिर डेरे छोड़ दिया जाता था और जैसे ही बारात पहुंचती उधर से गालियां गाने का दौर फिर शुरू नाम लेकर जैसे लाड़े दा बापू ” कईयां दिना ते भुखा गहराइयां खूब लांदा , लाड़े दा मामा बोहड़ी ते रड़काया अम्मा अम्मा करदा बापू बापू करदा आया भत होर दिया वो भत होर दिया वो , प्यूली पियुली दाल चन्या दी बनी , लाड़े दा ताऊ खान बैठा खा गिया बाटी सारी , होर साथों मगना लगा लब्बड़ा ते कड़छी मारी , और इसी बीच बधू पक्ष की एक लड़की बारात में खड़े होकर ” शुभ शिक्षा ” पढ़ती थी जिसमें कुछ डायरेक्शन लड़की यानी की होने वाली बहु के लिए पढ़ कर सुनाई जाती थी और जैसे ही पढ़ कर हटी वर पक्ष की ओर से उसको कुछ पैसे दिए जाते थे , अब जब बरातिए खाना खा कर हटे उनको दक्षिणा दी जाती थी और साथ ही नाई एक शीशा लेकर हर पंक्ति में जाता था लगभग हर बाराती को शीशे में मुंह दिखाना और बदले में उसको पैसे दिए जाते थे ये भी एक लाग था , ऐसे अच्छे बढ़िया रिवाज और शिष्टाचार अब तो दूर दूर तक नहीं हैं, अब सारे रीति रिवाजों का स्थान डी जे ने ले लिया है उसके ऊपर बढ़िया कौन नाचा बस यही कोशिश रहती है , कुछ दारू मास्टर वहां नाचते नाचते जमीन पर गिर रहे हैं तो बाकी उसका तमाशा देखकर ठाखे मार रहे हैं और उसकी घर बाली शर्मिंदा भी हो रही है और अपने आंसू अंदर ही अंदर पी रही है अब बेचारी कर भी क्या सकती है धर्मपत्नी जो ठहरी , अब इतने तक ही बात सीमित हो गई है और अब सारे रीति रिवाजों के बाद अब शाम को बारी आई लड़की की विदाई की , इसमें दहेज का सामान होता था ( जो अब कानूनी अपराध है) इसमें बहुत सा सामान रिश्तेदारों द्वारा दिया जाता था , जैसे सिलाई मशीन मासी की तरफ से , पंखा किसी दूसरे रिश्तेदार द्वारा , ऐसे ऐसे कई आइटम , हां उस समय सिंगल मंजा दिया जाता था और ये हैसियत अनुसार नुआर या रंगे हुए बाण का होता था , डबल बेड का रिवाज बाद में चला , ये विदाई के पल बहुत ही भावुक होते थे क्योंकि आज की विदाई और उस समय की विदाई में जमीन आसमान का फर्क था जैसे ही अंदर के रश्मों रिवाज जैसे सिरगुण्दी के बाद लड़की को दुल्हे के साथ विदाई के लिए बाहर लाया जाता था लड़की के रोने से , मैं तो कहूंगा एक किस्म की चीतोपुकार माहोल को गमगीन बना देता था , अब तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता, वहां ऐसा कोई नही होता था जिसकी आंखें नम न हो, ऐसा लगता था छत पर रोज बैठने और चहचहाने बाले चिडु पंखेरू भी उदास हों , एक तरफ तो तीन तहों बाला घूंघट और बारी बारी सभी का मिलना और लड़की का लिपट कर एक हृदय विदारक क्रंदन कि ” घुमाई चाची तुसां जो , घुमाई ताई जी तुसां जो ऐसे सभी से बारी बारी मिलना और उधर लेडीज द्वारा विदाई गीतों का गाना , मेरे बागे दिए कोयले बागे छोड़ी कुथू चली शहनाई बालों की भी ऐसी ही ट्यून छोड़ बाबुल का घर मौके पीके नगर आज जाना पड़ा, अंत में माता जी द्वारा दूध बाली रस्म जिसे ” चीचू घुट्टू ” कहा जाता था कि मां द्वारा ये समझाना कि बेटी ससुराल जा कर मेरे दूध की लाज रखना बस उसके बाद मामा द्वारा लड़की को डोली में डालने के लिए उठाना और उधर लड़की के साथ सभी का रोना , ये दृश्य पत्थर दिल को भी पिघला देते थे जैसे ही कहारों द्वारा पालकी उठाई जाती थी उधर पिता द्वारा डोली के ऊपर सिक्कों का उछालना जिसे ” छंड ” कहते हैं, एक बात बताऊं इन सिक्कों को उठाने के लिय कभी मैने भी जखम खाए हैं , दूर तक सुखपाल और डोली को निहारते रहना , लड़की के साथ आठ से ग्यारह तक लद्धड़ जाते थे मतलब भाई , गांव के लड़के या रिश्तेदारी से लड़के और सबसे बड़ी बात थी एक जनानी साथ भेजी जाती थी जिसे ” पचेकन ” कहते थे इसका रोल होता था दो दिन तक ससुराल में लड़की के साथ रहना क्योंकि ससुराल पक्ष में सब अजनबी तीन पल्लों का घूंघट तो ये साथ में अंदर बाहर जाने में भी सहायता करती थी क्योंकि उस समय अटैच्ड बाथरूम और सीट्स नही होती थी कहीं बाहर खेतों में ही जाना पड़ता था।

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