

मुफ्त की राजनीति: लोकतंत्र के लिए खतरा

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजे यह संकेत देते हैं कि ‘फ्री’ यानी मुफ्त की राजनीति भारतीय लोकतंत्र में गहरी जड़ें जमा चुकी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) को शिकस्त देकर यह तो दिखा दिया कि मजबूत रणनीति, योजनाओं और चुनावी प्रबंधन से सत्ता परिवर्तन संभव है, लेकिन एक गंभीर सवाल यह भी उठता है कि क्या अब सभी दल ‘फ्री कल्चर’ को ही चुनावी सफलता का साधन मान चुके हैं?
जनता की लत या नेताओं की मजबूरी?
इस चुनाव में भाजपा ने खुद को ‘फ्री की राजनीति’ से अलग नहीं रखा, बल्कि उसने भी वादों की झड़ी लगा दी। मध्यम वर्ग को आयकर में छूट दी, सरकारी कर्मचारियों को यूनिफाइड पेंशन स्कीम दी, और ‘आप’ सरकार की मुफ्त योजनाओं को जारी रखने का वादा किया। यानी अब ‘फ्री’ की राजनीति सिर्फ एक पार्टी तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह सभी दलों के लिए जरूरी औजार बन चुकी है।
यह चिंता की बात है कि मतदाता अब उन वादों पर अधिक ध्यान दे रहे हैं जो तात्कालिक लाभ देते हैं, बजाय इसके कि वे दीर्घकालिक विकास और रोजगार सृजन जैसी नीतियों को प्राथमिकता दें। जब सरकारें मुफ्त बिजली, पानी, शिक्षा और चिकित्सा बांटने की होड़ में लग जाएं, तो इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था और उत्पादन क्षमता पर पड़ता है। अगर हर चीज मुफ्त मिल रही हो, तो कोई मेहनत क्यों करेगा? जब सरकारें ही रोजगार के बजाय मुफ्त सुविधाओं पर जोर देंगी, तो लोग काम की तलाश में क्यों जाएं?
रोजगार बनाम मुफ्तखोरी
लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह जनता को आत्मनिर्भर बनाता है या आश्रित। जब सरकारें रोजगार देने के बजाय मुफ्त की रेवड़ियां बांटने लगती हैं, तो लोगों में कार्यशीलता की भावना कमजोर होती है। दिल्ली के चुनावों ने यह भी दर्शाया कि जनता को मुफ्त सुविधाएं तो पसंद हैं, लेकिन उनके वितरण का तरीका भी मायने रखता है।
अरविंद केजरीवाल का मुफ्त मॉडल जिस ‘ईमानदारी’ के दावे के साथ आया था, वह उनकी सरकार के घोटालों और विवादों के कारण कमजोर पड़ गया। जनता ने स्पष्ट संदेश दिया कि ‘फ्री’ का मतलब यह नहीं कि शासन में पारदर्शिता और ईमानदारी को भुला दिया जाए।
क्या यह देशहित में है?
सरकार का काम मुफ्त में सुविधाएं बांटना नहीं, बल्कि ऐसे अवसर उपलब्ध कराना है जिससे लोग आत्मनिर्भर बनें। यदि हर कोई सरकारी योजनाओं पर ही निर्भर हो जाए, तो अर्थव्यवस्था का पहिया ठहर जाएगा। टैक्स देने वाले लोग यह सवाल उठाने लगेंगे कि उनकी मेहनत की कमाई उन लोगों पर क्यों खर्च हो रही है जो खुद काम करने में रुचि नहीं रखते?
मुफ्त की राजनीति दीर्घकालिक दृष्टि से किसी भी देश के लिए घातक है। यह सरकारों को लोकप्रियता के चक्कर में व्यावहारिक आर्थिक सुधारों से दूर रखती है। यदि सभी पार्टियां मुफ्त की होड़ में लग जाएं, तो रोजगार सृजन, औद्योगिक विकास और आर्थिक सुधार पीछे छूट जाएंगे।
आगे का रास्ता
दिल्ली चुनाव के नतीजे यह संकेत देते हैं कि मुफ्त की राजनीति को जनता ने स्वीकार किया है, लेकिन यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। सरकारों को चाहिए कि वे मुफ्त सुविधाओं के स्थान पर शिक्षा, कौशल विकास और उद्यमिता को बढ़ावा दें, जिससे लोग खुद अपनी आजीविका कमा सकें।
राजनीतिक दलों को भी आत्ममंथन करना होगा कि क्या वे वोटों के लिए जनता को मुफ्तखोरी की आदत डालकर उनकी कार्यक्षमता खत्म करना चाहते हैं, या फिर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं जहां हर नागरिक आत्मनिर्भर हो। इस बहस का उत्तर आने वाले चुनावी वर्षों में ही मिलेगा, लेकिन एक बात तय है—मुफ्त की राजनीति का यह मॉडल देश की अर्थव्यवस्था और उत्पादकता के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
— बी के सूद
(चीफ एडिटर, ट्राई सिटी टाइम्स)