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राजनीतिक गणित और सत्ता का समीकरण: दिल्ली से हिमाचल तक

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राजनीतिक गणित और सत्ता का समीकरण: दिल्ली से हिमाचल तक.

Tct ,bksood, chief editor

बी के सूद

दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के अलग-अलग चुनाव लड़ने का सीधा लाभ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हुआ। जिस तरह कांग्रेस के वोट आप ने काटे, उसी तरह यदि हिमाचल प्रदेश में भी आप मजबूती से चुनाव लड़ती और सत्येंद्र जैन जेल में न होते, तो हिमाचल में भाजपा की सरकार बन सकती थी।

हिमाचल प्रदेश में 2022 के चुनावों में हार-जीत का अंतर कई सीटों पर बेहद कम था। अगर आप चुनाव लड़ती, तो कांग्रेस के वोटों का विभाजन होता और भाजपा सत्ता में बनी रह सकती थी। हालांकि, आप को उतना ही नुकसान उठाना पड़ता, जितना दिल्ली में कांग्रेस को हुआ—लेकिन इस स्थिति में भाजपा का फायदा तय था। दिल्ली और हिमाचल की राजनीति में यह समानता साफ दिखती है कि कांग्रेस और आप की विचारधारा में कोई खास अंतर नहीं है। दोनों के बीच लड़ाई केवल सत्ता प्राप्ति की है, जिससे भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा मिलता है।

यह स्थिति प्रसिद्ध कहावत “दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी खा गया” की तरह है। कांग्रेस और आप आपस में वोटों का बंटवारा कर एक-दूसरे को कमजोर कर रही हैं, और भाजपा इसी विभाजन का लाभ उठाती है। दिल्ली में कांग्रेस लगभग अप्रासंगिक हो चुकी है, जबकि हिमाचल में आप अभी पैर जमाने की कोशिश कर रही थी। यदि आप ने हिमाचल में ज्यादा मजबूती दिखाई होती, तो कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए यही पर्याप्त होता।

दिल्ली के चुनाव परिणामों से यह भी स्पष्ट होता है कि सत्ता में बने रहने के लिए रणनीति का लचीला होना जरूरी है। सत्ता किसी भी स्थिति में मजबूर हो सकती है—भ्रष्टाचार या अय्याशी से प्रभावित हो सकती है—परंतु अहंकार की गुलाम नहीं हो सकती। दिल्ली में आप ने यह समझा और कांग्रेस ने नहीं।

हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार के पीछे एक और अहम कारण था—पुरानी पेंशन योजना (OPS) की अनदेखी। सरकारी कर्मचारियों के लिए OPS एक बड़ा मुद्दा था, लेकिन भाजपा इसे सही तरीके से भांप नहीं सकी। कांग्रेस ने इस मुद्दे को भुनाया और इसका लाभ उठाकर सरकार बना ली। यदि भाजपा समय रहते OPS को लेकर सही निर्णय लेती, तो चुनावी परिणाम बिल्कुल अलग हो सकते थे।

हिमाचल में कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए जितने सीटों की जरूरत थी, उतनी ही उसे मिलीं। यह बताता है कि चुनावी गणित बेहद संवेदनशील था। भाजपा को हार टालने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी थी, बस उसे कर्मचारियों की भावनाओं को समझना था। लेकिन इस चूक ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया।

दिल्ली और हिमाचल के चुनावों से यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक दलों को अपने मतदाताओं की नब्ज पहचाननी होगी। आप और कांग्रेस को समझना होगा कि उनका वोट बैंक लगभग समान है, और उनके अलग-अलग चुनाव लड़ने से भाजपा को सीधा फायदा होता है। वहीं, भाजपा को यह समझने की जरूरत है कि चुनावी जीत केवल राष्ट्रवाद और बड़े वादों से नहीं होती, बल्कि जमीनी मुद्दों पर ध्यान देने से भी मिलती है।

यदि भाजपा हिमाचल में कर्मचारियों के पेंशन मुद्दे को पहले ही हल कर लेती, तो शायद उसे यह दिन न देखने पड़ते। अब देखना होगा कि भविष्य में कौन-सा दल अपनी रणनीति में बदलाव करता है और कौन इतिहास से सीखने की बजाय उसे दोहराने की गलती करता है।

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