Editorial *दृष्टिबाधितों की अनदेखी — संवेदनहीनता की पराकाष्ठा*


#bksood संपादकीय:
दृष्टिबाधितों की अनदेखी — संवेदनहीनता की पराकाष्ठा

शिमला की सड़कों पर मंगलवार को जो दृश्य सामने आया, वह केवल एक प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह उस गूंगी और बहरी व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा था, जो अपने ही नागरिकों की पीड़ा सुनने को तैयार नहीं। 581 दिन — क्या किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में इतनी लंबी अवधि तक कोई कमजोर वर्ग यूं उपेक्षित रह सकता है? लेकिन हिमाचल की दृष्टिबाधित बेरोजगारों की यही त्रासदी है।
राजधानी के बीचोंबीच सचिवालय के समीप चक्का जाम कर रहे दृष्टिबाधितों को पुलिस ने जबरन हटाकर बस में बिठा दिया और कालीबाड़ी भेज दिया — यह नज़ारा दिखाता है कि हमारी सरकारें सामाजिक न्याय और संवेदनशील शासन के कितने खोखले दावे करती हैं। 21 अप्रैल को सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री धनीराम शांडिल ने मुख्य सचिव से बैठक का आश्वासन दिया था, लेकिन 15 मई तक कोई पहल नहीं हुई। यह केवल वादाखिलाफी नहीं, बल्कि सरकार की गंभीर असंवेदनशीलता का स्पष्ट प्रमाण है।
दृष्टिबाधित संघ की मांगें क्या हैं? कोई विशेषाधिकार नहीं, कोई अनोखी रियायत नहीं — केवल वही जो उनके अधिकार हैं: दृष्टिबाधित कोटे के तहत खाली पड़े बैकलॉग पदों को भरना। क्या यह बहुत बड़ी मांग है? क्या संवैधानिक और मानवाधिकारों के दायरे में यह न्यायोचित नहीं? लेकिन जवाब में उन्हें पुलिस की ताकत से सड़क से उठाया गया। क्या दृष्टिविहीन होना कोई अपराध है?
यह विडंबना ही है कि जिनके पास दृष्टि है, उनकी दृष्टि में इन ‘दृष्टिबाधितों’ के लिए कोई स्थान नहीं। बड़ी-बड़ी घोषणाओं में ‘विकलांगों के लिए समावेशी समाज’, ‘समान अवसर’ और ‘सशक्तिकरण’ जैसे शब्द तो खूब दोहराए जाते हैं, लेकिन जब असल में उन्हें सम्मान और हक देना हो, तब शासन-प्रशासन आंखें मूंद लेता है।
लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात है विपक्ष की चुप्पी। जो खुद को ‘गरीबों का मसीहा’ बताने से कभी नहीं चूकते, वे इस मुद्दे पर गूंगे और बाहरे बने हुए हैं। देख तो सब रहे हैं, पर जुबान जैसे सीधी हो गई है। शायद वे भी किसी भ्रम या भरोसे में जी रहे हैं कि जनभावनाओं के इस संकट पर चुप रहकर राजनीतिक लाभ लिया जा सकता है। लेकिन यह भी उतनी ही निंदनीय है जितनी सत्ता की असंवेदनशीलता।
संघ के सचिव राजेश ठाकुर की यह पीड़ा बेहद मार्मिक है कि जब चक्का जाम करते हैं, तब बातचीत के लिए बुलाया जाता है — और फिर वही पुराना वादा-फरेब। सरकार को समझना होगा कि ये लोग भी इस समाज के बराबर के नागरिक हैं। उनके धैर्य की परीक्षा अब असहनीय हो चुकी है।
दृष्टिबाधितों की यह लड़ाई सिर्फ नौकरियों की नहीं है — यह सम्मान, अधिकार और आत्मनिर्भरता की लड़ाई है। और यह सवाल अब सत्ता और विपक्ष दोनों से है — क्या आप केवल वादों की राजनीति करेंगे? क्या दोनों ही पक्षों का ‘गरीबों का मसीहा’ बनना केवल नारा है?
अगर सरकार और विपक्ष दोनों ही इस वर्ग के साथ ऐसे ही बेरुखी बरतते रहे, तो जनता इन्हें माफ नहीं करेगी। संवेदनशील शासन और जिम्मेदार विपक्ष केवल भाषणों से नहीं, कर्मों से बनते हैं।
– बी.के. सूद
मुख्य संपादक, ट्राई सिटी टाइम्स