Editorial:-*ज्योति मल्होत्रा नहीं, दृष्टिकोण मायने रखता है कर्नल सोफिया कुरैशी बनाम ज्योति मल्होत्रा*


संपादकीय: ज्योति मल्होत्रा नहीं, दृष्टिकोण मायने रखता है कर्नल सोफिया कुरैशी बनाम ज्योति मल्होत्रा

देशभक्ति की परिभाषा को धर्म, जाति और संप्रदाय के चश्मे से देखने वालों को आज एक बार फिर आईना देखने की ज़रूरत है। एक ओर कर्नल सोफिया कुरैशी हैं — भारतीय सेना की वह जांबाज़ महिला अधिकारी, जिन्होंने ऑपरेशन सिंधुर जैसे अभियानों में अपनी भूमिका से यह सिद्ध किया कि देशभक्ति न तो किसी धर्म से जुड़ी होती है, न जाति से। एक मुस्लिम महिला होकर भी उन्होंने देश के लिए समर्पण और नेतृत्व का जो उदाहरण पेश किया, उस पर हर भारतीय को गर्व है। दूसरी ओर हैं ज्योति मल्होत्रा, जिन पर देशविरोधी गतिविधियों में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे हैं। ये दोनों महिलाएं अलग-अलग समुदायों से होने के बावजूद दो बिल्कुल विपरीत छवियां पेश करती हैं — एक प्रेरणा है, तो दूसरी नफ़रत के भी योग्य नहीं। यह फर्क हमें सिखाता है कि धर्म नहीं, चरित्र और दृष्टिकोण ही किसी व्यक्ति की असली पहचान होते हैं।
दुर्भाग्यवश, हमारी राजनीति ने कभी तुष्टीकरण तो कभी बहुसंख्यकवाद की आड़ में इस सच्चाई को लगातार नज़रअंदाज़ किया है। एक ओर दशकों तक कुछ सत्ताएं अल्पसंख्यक वर्ग को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती रहीं, तो दूसरी ओर आज का एक वर्ग भूतकाल के ज़ख्मों को कुरेदकर गढ़े मुर्दों को उखाड़ने में जुटा है — मानो विकास और समरसता के रास्ते से उनका कोई लेना-देना न हो।
आज की राजनीति न तो अंधविश्वास से लड़ पा रही है, न अशिक्षा से, न भ्रष्टाचार से, और न ही इंटरनेट की अराजकता से। अव्यवस्था और आपराधिक संरचनाओं से लड़ने की जगह, सत्ता अक्सर या तो इनका संरक्षण करती है या फिर उनसे समझौता कर लेती है। आरक्षण, जाति और धर्म के नाम पर समाज को बांटना अब सत्ता की रणनीति नहीं, उसका चरित्र बनता जा रहा है।
यह एक खतरनाक मोड़ है — जहां शासन व्यवस्था आत्ममुग्धता और स्वार्थ में डूबी हुई है, और समाज स्वयं को विघटन के रास्ते पर धकेल रहा है। लेकिन यह सुधार केवल राजनीतिक दलों या नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। बदलाव तब आएगा, जब आम नागरिक स्वयं जागेगा। जब वह वोट की कीमत समझेगा, जब वह जात-पात और धर्म के चश्मे से नहीं, बल्कि विकास, शिक्षा और समानता के दृष्टिकोण से देश और समाज को देखेगा।
समाज और सत्ता दोनों को अब आत्ममंथन की ज़रूरत है। हमें तय करना होगा कि हम कैसी विरासत आने वाली पीढ़ियों को सौंपना चाहते हैं — एक बंटी हुई, भयभीत और नफ़रत में जकड़ी हुई, या फिर एक शिक्षित, जागरूक और एकजुट भारत।
बदलाव की शुरुआत सत्ता से नहीं, सोच से होती है। और यह सोच, किसी नेता से नहीं, एक आम इंसान से जन्म लेती है।
– बी.के. सूद
मुख्य संपादक, ट्राई सिटी टाइम्स