Editorial *सच्चाई परेशान हो सकती है, लेकिन पराजित नहीं*


*सच्चाई परेशान हो सकती है, लेकिन पराजित नहीं*

सच्चाई परेशान हो सकती है, लेकिन पराजित नहीं — यह बात कितनी भी प्रेरणादायक क्यों न लगे, आज के समय में यह केवल एक आदर्श बनकर रह गई है। हमारा सिस्टम, जो लोकतंत्र, न्याय और पारदर्शिता की नींव पर खड़ा किया गया था, अब एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहाँ सच्चाई की राह सबसे कठिन बन चुकी है।
आज जब कोई व्यक्ति सिस्टम की खामियों को उजागर करने या सुधार की पहल करता है, तो वह अकेला पड़ जाता है। वहीं भ्रष्टाचार, जो शुरुआत में केवल एक अवसरवादी प्रवृत्ति होती है, धीरे-धीरे एक ‘जुंडली’ में बदल जाता है — एक ऐसा संगठित समूह, जो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए सिस्टम की जड़ों में घुसपैठ कर लेता है।
यह जुंडली केवल पैसे या रसूख वालों तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह सत्ता, नौकरशाही, ठेकेदारी, यहां तक कि कुछ मीडिया और विधि तंत्र के हिस्सों तक भी फैल जाती है। जब यह समूह मजबूत हो जाता है, तो सिस्टम केवल उनके इशारों पर चलने लगता है। जो निर्णय जनहित में होने चाहिए, वे कुछ खास लोगों के हित में होने लगते हैं। और तब सच्चाई, ईमानदारी, पारदर्शिता जैसे मूल्य हाशिए पर चले जाते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस जुंडली को चुनौती देने वाले अक्सर हतोत्साहित हो जाते हैं। उन्हें प्रताड़ना, अपमान और सामाजिक बहिष्कार तक का सामना करना पड़ता है। और जब पूरा सिस्टम इस गिरोह के कब्जे में आ जाता है, तब लोकतंत्र की आत्मा दम तोड़ने लगती है।
पर क्या इसका कोई समाधान नहीं? ज़रूर है। लेकिन वह आसान नहीं है। सच्चाई के पक्ष में खड़े होना, अकेले आवाज़ उठाना, गलत के विरुद्ध बोलना — यह सब जोखिम भरा ज़रूर है, पर नामुमकिन नहीं। ज़रूरत है जनजागरण की, ईमानदार नेतृत्व की और सबसे अधिक साहसी नागरिकों की। क्योंकि जब तक आम जनता खामोश रहेगी, तब तक सिर्फ जुंडली की ही चलेगी।
अब समय आ गया है कि हम सिर्फ तमाशा देखने वाले दर्शक न बनें, बल्कि व्यवस्था को सही दिशा में मोड़ने के लिए सक्रिय भूमिका निभाएं। वरना सच्चाई तो और भी ज्यादा परेशान होगी — और कभी न कभी पराजित भी।
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