जनमंचEditorial

Editorial:::*”जब स्टेयरिंग थामते ही अहंकार जाग उठता है, और कार वाले सड़क पर बसों के पीछे ‘गुलामों’ की तरह चलते हैं”*

कार चालकों की मजबूरी: हम कार वालों की मजबूरी तो बस वही जान सकता है, जो कभी इन ‘अजन बादशाहों’ के पीछे 30 की स्पीड पर बीसियों मिनटों तक रेंगता रहा हो। हॉर्न पर उंगलियाँ थक जाती हैं, लेकिन बस ड्राइवर की एक भौं तक नहीं हिलती। आप कितना भी जल्दी में हों — बच्चे स्कूल में लाइन में खड़े हों, ऑफिस में लेट मार्क लगने वाला हो, या किसी की जान अस्पताल ले जानी हो — मगर ये ‘राजा लोग’ तब तक पास नहीं देंगे जब तक इनकी ‘इच्छा’ न जागे। इनके पीछे चलना जैसे कोई सड़क परीक्षा हो: न ओवरटेक कर सकते, न कुछ कह सकते। और अगर हिम्मत करके पास ले लिया तो झेलिए उनकी जुबान की तलवारें — “बूढ़े दे ब्याये, जो चलेया क्या?” जैसे वाक्य तो इनके शब्दकोश में पहले पन्ने पर छपे हैं। हम कार वालों की नियति मानो यही रह गई है — बस के धुएं में घुटते हुए, पीछे-पीछे चलो, और चुप रहो। नियम, धैर्य, इमरजेंसी — ये सब हमारे लिए हैं। ‘बस ड्राइवर’ तो खुद को ट्रैफिक का ठेकेदार समझता है। उसका मूड ही कानून है।

 

 

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 बादशाह: बस की सीट से सड़क का सिंहासन

Tct ,bksood, chief editor

सड़कें अब महज रास्ते नहीं रहीं, ये अब कुछ खास लोगों की जागीर बन चुकी हैं। खासकर उन लोगों की, जो 4 फीट ऊँचाई पर बैठकर स्टेयरिंग को ऐसे थामते हैं मानो सड़कें उनकी रियासत हों और हम कार वाले, बाइक वाले, या पैदल चलने वाले सिर्फ़ कीड़े-मकोड़े, जिन्हें बस कुचलना बाकी है।

ये जो एचआरटीसी वाले हों या कुछ निजी बस कंपनियाँ, जैसे कि ‘अर्जुन बादशाह’, इनका रवैया ऐसा होता है जैसे सड़क पर जो दिखे, वो इनकी स्पीड और मूड पर निर्भर करता है—पास देना है या नहीं, ये इनका “राजसी विशेषाधिकार” है। हॉर्न बजाइए, हेडलाइट चमकाइए, या पीछे से विनती कीजिए… ये 10–15 किलोमीटर तक धुआं छोड़ते हुए ऐसे चलते हैं जैसे किसी यज्ञ में आहुति दे रहे हों, और पीछे की गाड़ियाँ उनके चरणों में कतारबद्ध चलें, यही इनकी इच्छा।

ये तो गनीमत है कि वीडियो बन रहा था, वरना आम दिनों में इनकी गालियों का अंबार सुनने को मिलता है—इतनी कड़ी और ‘क्रिएटिव’ कि अच्छे-अच्छे स्टैंडअप कॉमेडियन मात खा जाएँ।

कई बार लगता है कि ये सिर्फ बस नहीं चला रहे, रौब झाड़ रहे हैं। एक ओर आम आदमी टाइम से घर पहुँचे, बच्चे स्कूल जाएँ, कोई मरीज़ अस्पताल पहुँचे—यह सब इनकी मर्जी पर निर्भर है। इमरजेंसी है? कोई फर्क नहीं। अगर बस ड्राइवर की तबीयत नहीं हुई पास देने की, तो आप 30 की स्पीड पर पीछे-पीछे घिसटते रहिए। और अगर आप किसी तरह पास ले लें तो सुनिए—“बूढ़े दे ब्याये, जो चलेया क्या?”

और जो ट्रैफिक नियमों के रखवाले हैं, वे तो बस के पीछे लिखा ” बादशाह” देखकर ही नमस्ते कर लेते हैं। जैसे पंजाब और कुछ अन्य राज्यों में होता है, वैसा ही हाल यहाँ भी। चालान? पूछिए मत। राजा लोग हैं, इन पर कौन हाथ डाल सकता है।

बेशक, हर बार गलती बस वाले की हो, ऐसा ज़रूरी नहीं। लेकिन यह जो ‘राजसी व्यवहार’ है, उसने हर बस को सड़क पर चलता हुआ अहंकार का प्रतीक बना दिया है। नियम, शिष्टाचार, सह-अस्तित्व—ये शब्द इनके रियर व्यू मिरर में भी नहीं दिखते।

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