*DC साहिब कुछ तो करो, SDM साहिबा कुछ तो सुनो*
दुकानदार परेशान ग्राहक परेशान स्कूल कॉलेज जाने वाले बच्चे परेशान दफ्तर जाने वाले लोग परेशान टूरिस्ट परेशान बुजुर्ग और रिटायर्ड लोग सबसे ज्यादा परेशान


- Tct
*DC साहिब कुछ तो करो, SDM साहिबा कुछ तो सुनो*

अब तो जागो! इंसान की जान की कीमत जानवरों से कम क्यों हो गई है?
एक आम दुकानदार जसरा जी के साथ जो हुआ, वो किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे समाज की पीड़ा है। सुबह अपनी दुकान खोलते वक्त किसी को यह उम्मीद नहीं होती कि एक आवारा बैल उस पर हमला कर देगा, उसकी हड्डी तोड़ देगा और वो पूरे शरीर से घायल हो जाएगा। लेकिन यही हुआ। और यह कोई पहली या अकेली घटना नहीं है।
जसरा जी को पहले सिविल अस्पताल ले जाया गया, वहाँ से दत्तल हॉस्पिटल, वहाँ डॉक्टर न मिला तो विवेकानंद हॉस्पिटल — एक घायल इंसान को इलाज के लिए एक से दूसरी जगह भटकाया गया। ये एक व्यवस्था की असफलता की तस्वीर है, जो आंखें बंद किए बैठी है और जब भी कोई हादसा होता है, तब बस सांत्वना और जांच की बातें की जाती हैं।
आजकल बाजार में चलना, सुबह सैर करना, बच्चों को स्कूल भेजना या सब्ज़ी लेने जाना — सब किसी खतरे से कम नहीं लगता। यह खतरा किसी चोर-उचक्के का नहीं, बल्कि उन आवारा जानवरों का है जिनकी संख्या अब सड़कों पर लोगों से भी ज़्यादा नज़र आती है। कभी कुत्तों का झुंड पीछा करता है, कभी सांड सामने से हमला कर देता है, तो कभी बंदर सिर पर आ बैठते हैं।
कई बुज़ुर्ग, महिलाएं, स्कूली बच्चे पहले भी चोटिल हो चुके हैं। कुछ की हड्डियां टूटीं, कुछ को महीनों इलाज चला, और कुछ की तो जान तक चली गई। हाल ही में कंदबाड़ी में एक दूध बेचने वाले को सांड ने इतनी जोर से मारा कि उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई और अब वो ज़िंदगीभर के लिए अपाहिज हो गया। फिर भी न नगर परिषद जागती है, न पंचायतें, न ही नेता कुछ बोलते हैं।
क्या अब ये सवाल पूछना गलत है कि क्या इंसान की जान की कोई कीमत नहीं रह गई? क्या सड़कें जानवरों के लिए बना दी गई हैं? क्या हर बार हम किसी की हड्डी टूटने, खून बहने, या अस्पताल जाने के बाद ही चेतेंगे?
समाज सेवा के लोग मदद को आगे आते हैं — जैसे शनि सदन के परमेंद्र भाटिया जी जो घायल के साथ सुबह से अस्पताल-दर-अस्पताल भागते रहे — लेकिन कब तक समाज ही जिम्मेदारी उठाएगा? क्या प्रशासन सिर्फ बयान देने और काग़ज़ों में योजना बनाने तक सीमित रहेगा?
अब इस विषय को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
हम सभी की तरफ से जिला प्रशासन, विशेषकर माननीय एसडीएम महोदय और उपायुक्त (DC) कांगड़ा से अपील है कि इस मामले को गंभीरता से लें।
हमारे स्थानीय जनप्रतिनिधियों, नेताओं, पार्षदों से भी आग्रह है कि वह अपने दायित्व को समझें और सिर्फ मंच से नहीं, मैदान से भी समस्याओं का हल निकालें।
आवारा पशुओं की समुचित व्यवस्था हो, सड़कें सुरक्षित बनें, घायल लोगों को त्वरित चिकित्सा मिले, और जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय हो — यही अब वक्त की माँग है।
वरना लोग सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि इस देश में जानवरों की जान की रक्षा के कानून हैं, पर इंसानों की जान की रक्षा के लिए कोई जिम्मेदार नहीं।
अब तो इन जानवरों ने रात को लोगों का सोना भी मुहाल कर दिया है ।रात 1 बजे जब मै यह लेख जब मैं लिख रहा हूं तो एक सांड बड़ी जोर से गुस्से में दहाड़ रहा है उसकी दहाड़ना से ही सभी पड़ोसियों की नींद चली गई होगी अगर अभी कोई उसके सामने आ जाए तो वह न जाने कितने लोगों को मार ही डालेगा पूरे मोहल्ले की नींद हराम करके रखी है इस सांड ने। और पिछले 1 महीने से तो यहां पर बहुत बड़े-बड़े सांड आए हुए हैं जो 5-7 क्विंटल से कम नहीं और जो शेर को भी मारने की क्षमता रखते हैं। फिर यह इंसानों बच्चों बुजुर्गों और महिलाओं को क्या समझेंगे ऊपर से कुछ धार्मिक लोग ऐसे हैं कि जो इन्हें सड़कों पर खाना खिलाते फिरते हैं। इन्हें पालमपुर शहर से बाहर निकलना प्रशासन की प्राथमिकता होनी चाहिए ना की मुख्य दर्शक बनकर घटनाओं को देखते रहना चाहिए।
पालमपुर शहर को तो जैसे इन्होने अपनी शरण स्थल बना ली है प्रशासन क्यों नहीं उन लोगों को पहचान पा रहा है जो गांव से लाकर इन्हें यहां पर शहरों में छोड़कर जा रहे हैं क्यों उन्हें दंडित नहीं कर रहा? लोगों की आम राय है कि शासन प्रशासन को इस समस्या या जनता की कोई भी समस्या समस्या नहीं लगती क्योंकि वह उस समस्या से खुद रूबरू नहीं होते हैं यदि शाषक प्रशासक और नेता लोग अपनी लग्जरी गाड़ियों से उतरकर कभी सड़कों पर पैदल चलकर सैर करके दिखाएं तो शायद उन्हें वस्तु स्थिति का ज्ञान हो जाएगा और वह एक्शन भी तुरंत ले लेंगे।
जनहित की अब एक ही मांग:-
अब और नहीं… अब व्यवस्था को जागना ही होगा।