खंडहर बनती सरकारी संपत्तियां: सोने की खान से लाचारी के बोझ तक


खंडहर बनती सरकारी संपत्तियां: सोने की खान से लाचारी के बोझ तक

कभी जिन इमारतों से प्रशासनिक फैसले निकलते थे, आज वही इमारतें जंगली घास और वीरानी में खो चुकी हैं। करोड़ों की लागत से तैयार की गई सरकारी संपत्तियां आज खंडहर बन चुकी हैं, जैसे किसी जमाने की शान अब उपेक्षा का प्रतीक बन गई हो। यह हाल सिर्फ एक-दो भवनों का नहीं, बल्कि पूरे राज्यभर की उन सरकारी इमारतों का है, जिनका कभी बेहतर उपयोग हो सकता था, मगर अब वे गवाह बन गई हैं हमारी व्यवस्था की निष्क्रियता और लापरवाही की।
पालमपुर का एक सरकारी भवन—जो शहर के बीचों-बीच एक शानदार लोकेशन पर मौजूद है—आज ग्रीन गार्डन में बदल चुका है। न कोई देखभाल करने वाला, न ही कोई योजना इसका पुनः उपयोग करने की। यह अकेला उदाहरण नहीं है। ऐसी अनगिनत संपत्तियां हैं जो या तो खाली पड़ी हैं या फिर कबाड़घर बन चुकी हैं।
आखिर समस्या कहां है? समस्या उस मानसिकता में है जिसमें सरकारी संपत्ति को ‘किसी की नहीं’ समझा जाता है। अधिकारियों की उदासीनता, जटिल नौकरशाही प्रक्रियाएं और व्यावसायिक दृष्टिकोण की घोर कमी ने इन संपत्तियों को धीरे-धीरे बर्बादी की राह पर धकेल दिया है।
सरकारें आती-जाती रहती हैं, घोषणाएं होती रहती हैं, लेकिन जमीन पर कोई ठोस पहल नहीं हो पाती। अगर इन भवनों को लीज पर निजी क्षेत्र को दे दिया जाए, तो हर महीने लाखों का राजस्व अर्जित किया जा सकता है। इससे न केवल संपत्तियों की देखभाल होगी, बल्कि स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर भी मिलेंगे। मगर अफसोस, यह सोच फाइलों में दबी रह जाती है और हकीकत में कुछ भी नहीं बदलता।
समाधान कठिन नहीं, मगर इच्छाशक्ति की जरूरत है। निजीकरण एक विकल्प हो सकता है, पर उससे भी पहले जरूरी है सरकारी तंत्र में एक व्यावसायिक और जिम्मेदार सोच का प्रवेश। प्रत्येक संपत्ति का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार हो, उसकी स्थिति, स्थिति के अनुरूप योजना और जिम्मेदार अधिकारियों की स्पष्ट जवाबदेही सुनिश्चित की जाए।
यह वक्त है जब हम अपने संसाधनों को बोझ नहीं, अवसर मानना सीखें। खंडहर बनती सरकारी संपत्तियों को पुनर्जीवित करना सिर्फ वित्तीय मजबूती का जरिया नहीं, बल्कि एक जिम्मेदार शासन व्यवस्था का प्रतीक भी हो सकता है।
सरकारी अधिकारियों को चाहिए कि वे सिर्फ फाइलों में नहीं, जमीन पर उतरकर इन सवालों से दो-चार हों। एक निष्क्रिय इमारत को क्रियाशील बना देना किसी योजना से कम नहीं होगा। बस जरूरत है सोच बदलने की, जिम्मेदारी निभाने की और यह मानने की कि सरकारी संपत्ति भी राष्ट्र की संपत्ति है—और राष्ट्र की संपत्ति की रक्षा प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक और अधिकारी का धर्म है।
