

Editorial: जब तक जनसंख्या नियंत्रण नहीं होगा, तब तक विकास एक भ्रम ही रहेगा

देश के सामने आज जो चुनौतियाँ खड़ी हैं, वे केवल आर्थिक या सामाजिक नहीं, बल्कि मूल रूप से संख्यात्मक हैं — और यह संख्या सिर्फ मनुष्यों तक सीमित नहीं है। एक ओर अनियंत्रित बढ़ती हुई जनसंख्या है, तो दूसरी ओर तेजी से बढ़ती आवारा पशुओं की संख्या। ये दोनों समस्याएं उस रोग की तरह हैं जो दिखती नहीं, लेकिन भीतर से पूरे तंत्र को खोखला कर रही हैं।
हम वर्षों से देख रहे हैं कि विकास की बात हर मंच पर होती है। सड़कें बन रही हैं, योजनाएं लागू हो रही हैं, तकनीक आ रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति वैसी की वैसी बनी हुई है। क्यों? क्योंकि जिस रफ्तार से सुविधाएं बढ़ाई जा रही हैं, उससे कहीं तेज रफ्तार से आबादी का बोझ बढ़ रहा है।
अब उदाहरण के तौर पर एक सीधी सी बात समझिए: यदि आपके पास ₹500 हैं और आप इसे पाँच लोगों में बाँटते हैं तो हर किसी को ₹100 मिलेंगे। लेकिन यदि वही राशि आपको पचास लोगों में बाँटनी पड़े, तो किसी को पर्याप्त नहीं मिलेगा। ठीक यही स्थिति आज देश की अनियंत्रित जनसंख्या के कारण है। सरकार योजनाएं लाती है, लेकिन लाभार्थियों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है कि लाभ, नाममात्र बनकर रह जाता है।
इसी के समानांतर, आवारा पशुओं की समस्या अब शहरों से लेकर गाँवों तक विकराल रूप ले चुकी है। एक ओर किसान खेतों की रखवाली में रातें गुजारने को मजबूर हैं, तो दूसरी ओर शहरी नागरिक सड़कों पर आवारा सांडों और झुंड में घूमते कुत्तों से भयभीत हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे डरे हुए हैं, बुजुर्गों की दिनचर्या सीमित हो चुकी है।
यह केवल असुविधा की बात नहीं है, यह एक गंभीर सामाजिक संकट है। बंदरों ने पहाड़ी क्षेत्रों में जीवन दूभर कर दिया है, कुत्तों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि गली-मोहल्लों में कदम रखना कठिन हो गया है। हर रोज आवारा कुत्तों द्वारा बच्चों को नोचने की महिलाओं को काटने की और इंसानों को काटने की खबरें आती रहती हैं यहां तक की उच्च न्यायालय ने स्वत संज्ञान भी लिया है आवारा कुत्तों का आतंक इतना हो गया है कि गली मोहल्ला और गेटेड सोसाइटी तक में चलना तक दुभर हो गया है
समस्या की जड़ क्या है? नियंत्रण का पूर्ण अभाव।
सरकार जब कोई पहल करने की कोशिश करती है — चाहे वह नसबंदी हो, पकड़ने की मुहिम हो या गोशालाओं का निर्माण — तुरंत कुछ झंडा लेकर चलने वाले संगठन विरोध करने आ जाते हैं। वे इसे क्रूरता का नाम देते हैं, संविधान की दुहाई देते हैं, लेकिन इनमें से कोई भी न तो एक भी आवारा पशु को अपनाने को तैयार होता है, न उसकी देखभाल का जिम्मा उठाता है।
वही राजनीति जनसंख्या नियंत्रण पर भी मौन है। वोट बैंक की गणित इतनी हावी हो चुकी है कि कोई सरकार इस मुद्दे को छूने से भी डरती है। कुछ राज्यों ने कोशिश की, कुछ जगह चर्चाएं हुईं, लेकिन ठोस नीतियां आज तक सामने नहीं आईं।
अगर आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे सशक्त नेता के शासनकाल में भी जनसंख्या नियंत्रण पर साहसिक कदम नहीं उठाए जा सके, तो फिर भविष्य की कल्पना ही हताश कर देने वाली है।
इस सबके बीच, सवाल यह है कि क्या समाधान है?
निश्चित रूप से समाधान कठिन है, लेकिन असंभव नहीं।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बने — दो बच्चों की नीति केवल कागज़ पर नहीं, व्यवहार में भी दिखे।
नगरपालिकाएं आवारा पशुओं की नसबंदी को अभियान के रूप में लें, न कि केवल फाइलों में।
गोशालाएं और पशु आश्रय केंद्र केवल उद्घाटन तक सीमित न रहें, बल्कि वहाँ पशुओं की सही देखभाल हो, इसका सिस्टम बने।
सबसे ज़रूरी है — राजनीतिक इच्छाशक्ति। जब तक निर्णय कड़े नहीं होंगे, और उन्हें लागू करने का साहस नहीं होगा, तब तक कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती।
हमारा समाज अब उस मोड़ पर खड़ा है जहां यदि नियंत्रण नहीं किया गया, तो अव्यवस्था ही भविष्य होगी।
जनसंख्या हो या पशु — संख्या का नहीं, संतुलन का समय है।
वरना हम केवल नारे गढ़ते रह जाएंगे, और समस्याएं हमारी जड़ों को काटती रहेंगी।
अब नहीं तो कभी नहीं।