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Editorial *चमक जो अंधियारा लाती है एलईडी हेडलाइट्स, मॉडिफाइड साइलेंसर और शोर के बीच चुप है कानून, अंधा है सिस्टम*

गाड़ियों में फैक्ट्री फिटेड लाइट्स को हटाकर तेज़ एलईडी लगवाना अब एक आम चलन बन गया है। बात सिर्फ रौशनी तक सीमित नहीं है। मोटरसाइकिल सवारों की मॉडिफाइड साइलेंसरों की आवाज़ें और ज़रूरत से अधिक तीखे हॉर्न न केवल ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं, बल्कि लोगों की नींद, मानसिक स्वास्थ्य और शांति — तीनों को प्रभावित कर रहे हैं। रात में सो रही कॉलोनियों से लेकर ऑफिस से लौटते थके ड्राइवर तक, हर कोई इस ‘आक्रामक बदलाव’ का शिकार है।

 

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सम्पादकीय

चमक, शोर और चुप्पी का गठजोड़

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शहर की सड़कें अब पहले जैसी नहीं रहीं। जहां कभी रौशनी सुरक्षा का प्रतीक मानी जाती थी, वहां अब वही रोशनी खतरे का कारण बन रही है। हर रात सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों की तेज़ सफेद एलईडी हेडलाइट्स न सिर्फ आंखों को चौंधियाती हैं, बल्कि कुछ क्षणों के लिए दृष्टि को पूरी तरह बाधित कर देती हैं। यह एक ऐसा क्षण होता है जब हादसे की आशंका सबसे अधिक होती है। कई लोग अपनी जान की कीमत पर ही इस तीव्र रौशनी का परिणाम समझ पाते हैं।

चिंता की बात यह है कि यह खतरा किसी अज्ञात तकनीकी गलती का परिणाम नहीं, बल्कि जानबूझकर की गई मॉडिफिकेशन का हिस्सा है। गाड़ियों में फैक्ट्री फिटेड लाइट्स की जगह बाज़ार से हाई-पावर एलईडी लगवाना अब एक सामान्य फैशन बन गया है। इसके पीछे उद्देश्य चाहे दृश्यता बढ़ाना हो या दिखावा करना, लेकिन परिणाम आम जनता की सुरक्षा पर पड़ रहा है। यह केवल हेडलाइट तक सीमित नहीं है। मोटरसाइकिल सवारों द्वारा साइलेंसर में फेरबदल कर निकलने वाली तेज़ आवाजें और कानफाड़ू हॉर्न न केवल ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं, बल्कि नागरिकों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डाल रहे हैं।

इन सबके बीच जो सबसे स्पष्ट और चिंताजनक बात उभरकर आती है, वह है ट्रैफिक विभाग की चुप्पी। मोटर वाहन अधिनियम इन सभी गतिविधियों को स्पष्ट रूप से अवैध घोषित करता है। कानून में इनके लिए चालान, जुर्माना और यहां तक कि वाहन जब्त करने तक की व्यवस्था है। इसके बावजूद ऐसे वाहन सड़कों पर बेधड़क घूम रहे हैं। यह समझ से परे है कि ट्रैफिक पुलिस की नजर इन चमकती लाइटों और गूंजते साइलेंसर पर क्यों नहीं जाती। क्या उन्हें कार्रवाई के लिए किसी विशेष निर्देश का इंतजार है? क्या जनता की आंखों और कानों की सुरक्षा का जिम्मा केवल कानून में लिखकर खत्म हो गया है?

आज जरूरत है प्रशासनिक इच्छाशक्ति की। सिर्फ नियमों का होना पर्याप्त नहीं, जब तक उन्हें लागू करने वाले अधिकारी सक्रिय नहीं होंगे। अब समय आ गया है कि ट्रैफिक पुलिस को स्पष्ट निर्देश दिए जाएं कि ऐसे वाहनों पर बिना किसी चेतावनी के सख्त कार्रवाई की जाए। चालान एक उपाय हो सकता है, लेकिन जब तक वाहन मालिकों को यह महसूस न हो कि ऐसी हरकतें उन्हें भारी पड़ सकती हैं, तब तक यह बदलाव नहीं रुकेगा।।     

लेकिन सबसे चिंताजनक बात है – ट्रैफिक प्रशासन की मौन सहमति। मोटर वाहन अधिनियम इन सभी संशोधनों को गैरकानूनी मानता है। कानून में इनके लिए स्पष्ट दंड का प्रावधान है — चालान, जुर्माना, और ज़रूरत पड़े तो वाहन की जब्ती तक। फिर भी ऐसी गाड़ियां हर चौराहे पर नज़र आती हैं। ट्रैफिक पुलिस क्या इन्हें देख नहीं पा रही? या उन्हें ऊपर से आदेशों का इंतज़ार है? यह खामोशी अब खतरनाक रूप ले चुकी है।

जब एक आम नागरिक को तेज़ लाइट से आंखें बंद करनी पड़ें, जब बाइक की गूंज से एक बुज़ुर्ग की नींद टूट जाए, और जब हर दिन ट्रैफिक पुलिस के सामने ये सब खुलेआम होता रहे — तो यह सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि जनता की उपेक्षा है।
सवाल यह नहीं है कि कार्रवाई क्यों नहीं हुई। सवाल यह है कि अब तक क्यों नहीं हुई?

अब ज़रूरत है साहसिक और निरंतर कार्रवाई की। जुर्माना केवल औपचारिकता बन कर न रह जाए, बल्कि यह महसूस हो कि सार्वजनिक जगहों पर असंवेदनशीलता की कोई जगह नहीं है। प्रशासन को इस ‘फैशन’ को ‘अपराध’ मानकर उसी दृष्टि से देखना होगा।

सबसे भयावह स्थिति तो उन भारी-भरकम ट्रकों की है, जो 12 से 18 टायरों के साथ सड़कों पर दौड़ते हैं। इन ट्रकों में मॉडिफिकेशन की सीमा नहीं होती — न लाइट्स की, न हॉर्न की। रात के सन्नाटे में जब ये ट्रक सड़कों पर चलते हैं, तो इनके हॉर्न की गूंज 5 से 6 किलोमीटर तक सुनाई देती है। कई बार यह आवाज़ इतनी तीव्र होती है कि सड़क से दो किलोमीटर दूर स्थित कॉलोनियों तक में सोते हुए लोग घबरा कर उठ बैठते हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इन हॉर्न्स की आवश्यकता ही नहीं होती — फिर भी यह ‘मशीनरी दंभ’ जताने के लिए बजाए जाते हैं। ट्रक चालक छोटी गाड़ियों को अपने रास्ते की रुकावट मानते हैं और उन्हें पास देना अपनी ‘शान के खिलाफ’ समझते हैं। अगर कोई दुर्घटना हो भी जाए, तो उन्हें कानून से डर नहीं लगता — क्योंकि उन्हें पता है कि बेल तो मिल ही जाएगी और मुकदमा चलेगा सालों तक। ऐसे में दो-चार महीने की सज़ा किसी कीमत की नहीं लगती। यही मानसिकता सड़क को जंगल बनाती है — जहां ट्रक राज करते हैं और बाकी वाहन सिर्फ भाग्य भरोसे चलते हैं।

शहरों को सजाने के लिए एलईडी लाइटों की जरूरत हो सकती है, लेकिन गाड़ियों की हेडलाइट इतनी तेज़ नहीं होनी चाहिए कि वह सामने से आने वाले को अंधेरे में धकेल दे। शोर केवल त्यौहारों तक सीमित रहे, सड़कों पर नहीं। और कानून केवल किताबों में न रहे, सड़कों पर दिखे — यही उम्मीद है। प्रशासन को अब चुप रहना नहीं, चलना होगा — जनता के साथ, जनता की सुरक्षा के लिए।

 

 

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