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*बना कर रखो अपनी पहचान, वरना जब जाएगी जान तो बुलाने पड़ेंगे ‘खान*’ 😢

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बना कर रखो अपनी पहचान, वरना जब जाएगी जान तो बुलाने पड़ेंगे ‘खान’ 😢

Tct ,bksood, chief editor

आज के दौर में हमारी भारतीय संस्कृति और संस्कार इस कदर विकृत हो चुके हैं कि न तो हमें बीमारी का डर है और न मौत का। लोग अपने पैसों, पद-प्रतिष्ठा और रसूख पर इतना घमंड करते हैं कि उन्हें लगता है— “मैं पैसों से सब कुछ खरीद लूंगा।”
लेकिन सच्चाई यह है कि अंत समय में ये सब चीजें किसी काम नहीं आतीं, और जिन रिश्तों व लोगों पर आपको भरोसा होता है, वही उस वक़्त नदारद मिलते हैं।

इंसान को इंसानियत नहीं भूलनी चाहिए। किसी को छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, औकात के तराजू से तौलना सबसे बड़ी भूल है। बड़े-बड़े अफसर, ऊँचे पद से रिटायर लोग, अपार संपत्ति के मालिक— हमने उन्हें भी देखा है जिनके अंतिम समय में चार कंधा जुटाना मुश्किल हो गया। उस वक़्त ही याद आते हैं शनि सेवा सदन के परमेंद्र भाटिया जैसे लोग, जो अकेले दस आदमियों का काम कर देते हैं।

अभी हाल ही की एक घटना में, न कोई पड़ोसी आया, न दोस्त, न रिश्तेदार। समय इतना बदल चुका है कि न भावनात्मक रिश्ते बचे हैं, न सामाजिक शर्म-लिहाज़। आने वाले समय में शायद हालात इतने गिर जाएँ कि किसी के घर मृत्यु हो जाए, तो परिजन इंतज़ार करते-करते थक जाएँ और अंत में मज़दूरों या खान को किराए पर बुलाना पड़े— “आओ, अंतिम संस्कार कर दो।”

सोचिए, यह वही देश है जहाँ कभी मौत के घर में पूरा गाँव इकट्ठा हो जाता था, जहाँ कंधा देने के लिए लोग लाइन में लगते थे, और आज… अपने लोग फोन तक नहीं उठाते। क्या हम इतने स्वार्थी, इतने अकेले और इतने संवेदनहीन हो गए हैं?

उस घटना में, जहाँ कोई आगे नहीं आया, परमेंद्र भाटिया ने बिना किसी जान-पहचान या लेन-देन के अंतिम संस्कार का धर्म निभाया। कम लोग इकट्ठा हो पाए, लेकिन उन्होंने अकेले ही चार आदमियों का काम किया। भाटिया जैसे लोग हर जगह नहीं मिलते— जो लावारिस लाशों का भी संस्कार करें, पुलिस कस्टडी में पड़ी लाशों की जिम्मेदारी उठाएँ, और प्रशासनिक प्रक्रिया तक खुद निभाएँ।

यह समय हमें सोचने पर मजबूर करता है—
क्या हम इंसानियत को जिंदा रखेंगे या अपने आखिरी संस्कार भी ठेके पर करवाएँगे?
क्योंकि मौत आने में देर नहीं लगती, और अगली बारी आपकी भी हो सकती है…

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