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*डॉक्टर भी इंसान हैं, भगवान नहीं — गलती उनसे भी हो सकती है*

डॉक्टर को भी यह समझना चाहिए कि उनके सामने जो मरीज बैठा है वह कोई मिट्टी का खिलौना नहीं या प्लास्टिक का टॉय नहीं जिसे जैसा मर्जी घुमा दो जैसे मर्जी तोड़ दो मरोड़ दो

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डॉक्टर भी इंसान हैं, भगवान नहीं — गलती उनसे भी हो सकती है

Bksood chief editor TCT

— जब उम्मीदें इंसानियत पर भारी पड़ जाएं

तीसा का चिकित्सक प्रकरण अब सिर्फ एक घटना नहीं रहा — यह एक प्रतीक बन गया है कि कैसे किसी मामूली सी बात को सोशल मीडिया के दौर में बम बनाकर उड़ा दिया जाता है।
सवाल यह नहीं कि कौन सही था या कौन गलत, सवाल यह है कि क्या हमने इंसान को इंसान के रूप में देखने की संवेदना खो दी है?

तीसा अस्पताल के इस प्रकरण में वीडियो वायरल हुआ, आरोप लगे, प्रतिक्रियाएँ आईं, और देखते ही देखते पूरा चिकित्सा समुदाय कठघरे में खड़ा कर दिया गया। लेकिन गहराई से देखा जाए तो इस घटना में डॉक्टर और मरीज़ या अभिभावक का आमना-सामना ही नहीं हुआ था — न कोई बातचीत, न कोई व्यवहार, न अच्छा, न बुरा। फिर यह सब कैसे और क्यों इतना बड़ा मुद्दा बन गया?

किसी ने वीडियो बनाया, सोशल मीडिया पर डाला, और फिर उस पर जो तूफ़ान उठा — उसने पूरे चिकित्सा जगत की गरिमा को झकझोर दिया। लोगों ने बिना पूरी सच्चाई जाने डॉक्टर को गालियाँ दीं, बदनाम किया, “चपैड़” तक मारने की बातें तक खुली जुबान से कही जाने लगीं। क्या यही समाज की संवेदनशीलता है? क्या यही जिम्मेदार नागरिक का व्यवहार है?

यहां यह समझना ज़रूरी है कि डॉक्टर भी इसी समाज का हिस्सा हैं — वे न तो भगवान हैं, न पत्थर के बने हैं। उनके भी अपने परिवार हैं, बच्चे हैं, रिश्तेदार हैं, ज़िम्मेदारियाँ हैं। वह भी बीमार पड़ते हैं, उन्हें भी ब्लड प्रेशर होता है, शुगर होती है, अनिद्रा होती है, मानसिक दबाव होता है। कई बार वे 12 से 14 घंटे लगातार काम करते हैं, बिना समय पर खाना खाए, बिना पर्याप्त आराम किए — सिर्फ इसलिए कि किसी का बेटा-बेटी, कोई मां-बाप इलाज से राहत पा सके।

हम उनसे उम्मीद करते हैं कि वे हमेशा मुस्कराते रहें, हर स्थिति में शांत रहें, हर वक्त सेवा भावना से ओत-प्रोत रहें। पर क्या यह संभव है? क्या किसी इंसान से यह उम्मीद करना उचित है कि वह हमेशा धैर्य की मूर्ति बना रहे, चाहे परिस्थिति कितनी ही कठिन क्यों न हो?

आजकल हर अस्पताल का कोई न कोई वीडियो सोशल मीडिया पर घूम जाता है — कोई डॉक्टर किसी से थोड़ा ऊँचे स्वर में बोल दे, तो कैमरा ऑन हो जाता है, एडिट होती है क्लिप, और फिर “जनता का गुस्सा” के नाम से वायरल होती है। लोग भूल जाते हैं कि डॉक्टर भी एक पेशेवर है — उसे भी अपनी इज़्ज़त चाहिए, अपना मनोबल चाहिए। हर वायरल वीडियो किसी डॉक्टर को तोड़ देता है — मनोवैज्ञानिक रूप से, सामाजिक रूप से, और कभी-कभी आर्थिक रूप से भी।

यह सच है कि कभी-कभी डॉक्टरों से भी गलती होती है। पर गलती इंसान से होती है, और इंसान वही है जो गलती से सीखकर और बेहतर बने। उन्हें “देवता” बना दिया गया है, जबकि वे हर रोज़ इंसानों के बीच रहकर इंसानियत निभाते हैं। लेकिन जब वही समाज उन्हें “देवता से गिरा हुआ”व दानव घोषित कर देता है, तो वह डॉक्टर जो दिन-रात सेवा में लगा था, अचानक खुद को अपराधी महसूस करने लगता है।

इस प्रकरण में सबसे बड़ा नुकसान उस डॉक्टर का हुआ — जिसकी न केवल पेशेवर छवि धूमिल की गई, बल्कि उसे “लाइव तमाशे” की तरह सोशल मीडिया पर सरेआम जलील किया गया। उसके साथ वही हुआ जो महाभारत की द्रोपदी के साथ सभा में हुआ था — सबके सामने अपमान, और कोई आगे नहीं आया रोकने। न किसी ने उसकी बात सुनी, न परिस्थिति समझी, न उसकी मेहनत देखी। हर व्यक्ति, हर बुद्धिजीवी, हर टिप्पणीकार इस डॉक्टर के पीछे हाथ धोकर पड़ गया।

लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जैसे समाज को डॉक्टर की मजबूरी समझनी चाहिए, वैसे ही डॉक्टर को भी मरीज की भावनाएँ समझनी होंगी। मरीज कोई मशीन नहीं है, कोई प्लास्टिक का खिलौना नहीं है कि उसे तकनीकी शब्दों में नापा जाए और इलाज की तरह “ट्रीट” किया जाए। वह दर्द में है, डर में है, उम्मीद में है। उसकी आँखों में भरोसा है, और डॉक्टर का पहला धर्म है उस भरोसे को टूटने न देना।

डॉक्टरों को यह भी याद रखना चाहिए कि उनके शब्द, उनका व्यवहार, उनका लहजा — मरीज की मानसिक स्थिति को गहराई से प्रभावित करता है। मरीज को यह महसूस नहीं होना चाहिए कि वह विवश है, लाचार है या अज्ञानी है। डॉक्टर का काम सिर्फ इलाज करना नहीं, बल्कि भरोसा जगाना भी है। क्योंकि अक्सर मरीज की आधी बीमारी डॉक्टर के व्यवहार से ही ठीक हो जाती है।

अगर समाज डॉक्टर से संवेदना चाहता है, तो डॉक्टर को भी मरीज की भावनाओं को समझने की जिम्मेदारी उठानी होगी। दोनों तरफ से इंसानियत ही इस रिश्ते की रीढ़ है।

हमें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए — क्या यह सब सही हुआ? क्या पूरे प्रदेश में दिन-रात मेहनत कर रहे हजारों चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ और कर्मचारियों का मनोबल नहीं टूटा होगा? क्या इस तरह के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डालना और फिर उसी वीडियो के आधार पर किसी की सामाजिक हत्या कर देना न्याय है?

यह समाज तभी स्वस्थ रह सकता है जब मरीज और डॉक्टर — दोनों एक-दूसरे की परिस्थिति को समझें। डॉक्टर से उम्मीद रखना ठीक है, लेकिन उस पर अंधी अपेक्षा लाद देना अमानवीय है। हर चिकित्सक के अंदर भी भावनाएँ हैं, थकान है, सीमाएँ हैं। अगर आप उनकी तारीफ नहीं कर सकते, तो कम से कम उन्हें बदनाम मत करें। और डॉक्टरों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि मरीज कोई आंकड़ा या केस नंबर नहीं है — वह भी संवेदनशील आत्मा है, जिसे सहानुभूति और सम्मान चाहिए।

क्योंकि अंततः —
डॉक्टर भी इंसान है, भगवान नहीं।
वह भी हमारे ही बीच का है, जो हर दिन किसी अनजान चेहरे की ज़िंदगी बचाने के लिए अपनी ज़िंदगी अपने प्रोफेशन पर लगाता है। मेहनत करता है
और मरीज भी इंसान है — जो हर बार भरोसे की आंखों से डॉक्टर की ओर देखता है।

ट्राई सिटी टाइम्स संपादकीय टीम

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