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*पालमपुर के विक्रम बत्रा मैदान में बेंच पर बैठना खतरे से खाली नहीं। गलत तरीके से लगी बेंचें बन सकती है हादसे का कारण*।

गलती नगर निगम की, लेकिन खामियाजा सरकार और सत्ताधारी पार्टी को भुगतना पड़ रहा है क्या नगर निगम जानबूझकर ऐसी गलतियां करता है जिससे सरकार की बदनामी हो??

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पालमपुर के विक्रम बत्रा मैदान में बेंच पर बैठना खतरे से खाली नहीं। गलत तरीके से लगी बेंचें बन सकती है हादसे का कारण।

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– ट्राई सिटी टाइम्स न्यूज (Tri City Times news)

गलती नगर निगम की, लेकिन खामियाजा सरकार और सत्ताधारी पार्टी को भुगतना पड़ रहा है क्या नगर निगम जानबूझकर ऐसी गलतियां करता है जिससे सरकार की बदनामी हो??

नगर निगम पालमपुर ने कैप्टन विक्रम बत्रा मैदान में जो बेंच लगाई हैं, उन पर बैठने के लिए आपको संघर्ष तो करना ही पड़ेगा और अगर ज़रा सी भी भूल हुई तो आपका इलाज किसी छोटे अस्पताल में नहीं, बल्कि बड़े से बड़े अस्पताल में होना भी नामुमकिन हो जाएगा। पालमपुर के विक्रम बत्रा मैदान में पहले नगर परिषद द्वारा बहुत अच्छी तरह से बेंचें लगवाई गए थे, जिन पर लोग बैठकर सांस्कृतिक कार्यक्रम, मेले तथा खिलाड़ियों के खेल देखा करते थे। या सुबह शाम थोड़ा रिलैक्स होने के लिए बैठते थे।

परंतु पार्किंग के चक्कर में वह बेंचें वहां से उखाड़ दी गई और अब गजीबो के पास केवल चार या पांच बेंच रह गई हैं। उन्हें इतना आगे खिसका कर लगा दिया गया है कि उन पर बैठना किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम नहीं। ज़रा सी नज़र हटी और दुर्घटना घटी — बेंच के आगे दो-तीन इंच का गैप भी नहीं है। जिससे आप वहां पर ढंग से पैर रखकर बैठ सकें। ज़रा सी भी भूल हुई तो आप लुढ़क कर आठ-दस सीढ़ियां नीचे चले जाएंगे, और वो भी स्टेडियम की डेढ़-दो फुट ऊँची सीढ़ियां हैं।

पता नहीं क्यों नगर निगम इस तरह के कार्य करता है जिससे लोगों को परेशानी हो या उसे हंसी का पात्र बनना पड़े। या सत्ताधारी पार्टी की या सरकार की बदनामी हो ।
ऐसा लगता है कि इन दोनों ही कामों में नगर निगम को बहुत मज़ा आता है। तस्वीरों में जो लोग दिखाई दे रहे हैं, वे कोई बड़े-बड़े इंजीनियर नहीं हैं, लेकिन उनकी भी यही राय थी कि जरा सा भी पैर फिसलने से आदमी 10 फीट नीचे गिर जाएगा और पूरी तरह घायल हो जाएगा।

नगर निगम का जो फील्ड स्टाफ है, क्या उसे इतना भी मालूम नहीं कि बेंच पर बैठने के लिए आगे थोड़ा सा फुट स्टेप तो चाहिए ही, जिससे आदमी बेंच पर ढंग से बैठ सके? एक व्यक्ति ने कहा कि जो शायद दिहाड़ीदार मज़दूर था — “अगर मुझसे ही पूछ लेते यहां के इंजीनियर, तो मैं ही उन्हें बता देता कि यह बेंच कैसे रखी जाती हैं, कहां रखी जाती हैं।”

किसी ने हंसी-मज़ाक में कहा — “ये बेंच तो शायद बंदरों के लिए बनाई गई हैं, ताकि वे उछलकर बैठ जाएं, इंसानों के लिए नहीं। अगर इंसान नहीं बैठ पा रहे या बंदर यहां पर बैठने के लिए नहीं आ रहे तो इसमें नगर निगम का क्या कसूर!?”

क्या नगर निगम की कार्यशैली या सोच इतनी संकुचित हो चुकी है कि वह लोगों की सुख-सुविधा के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचता? या फिर यह सब जानबूझकर किया जाता है ताकि शासन की बदनामी हो और लोग कहें कि “इसके राज में तो ऐसा ही होना है।”

वहां पर बैठे लोगों ने भी यही कहा कि यह सब शायद जानबूझकर किया जा रहा है परंतु ऐसा कार्य क्यों किया जाता है जिससे शासन-प्रशासन पर उंगली उठे और लोग सरकार के बारे में उल्टी-सीधी बातें करें? पहले तो नगर निगम ने बेंच उखाड़कर बहुत बड़ी गलती की, जिसे जनता ने भारी विरोध भी किया है और अब जो बेंचें रह गई हैं, वे भी इस तरह लगाई गई हैं कि किसी भी समय दुर्घटना हो सकती है।

गलती नगर निगम करता है, और उसका खामियाजा सरकार और सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी को भुगतना पड़ता है। क्या यह गलतियां यूं ही हो जाती हैं या फिर जानबूझकर की जा रही हैं ताकि सरकार को बदनाम किया जा सके और जनता के बीच उसकी छवि खराब हो?

नगर निगम को चाहिए कि मैदान में पहले की तरह लोगों के बैठने के लिए बेंचों का निर्माण दोबारा करे, क्योंकि अब पार्किंग समाप्त कर दी गई है। जो व्यवस्था पहले थी, वही फिर से बनाई जाए ताकि लोग सरकार से नाराज़ न हों, सरकार के प्रति उनका गुस्सा न बढ़े और सरकार हंसी का पात्र न बने।

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