

हजारों डॉक्टर-नर्स बेरोज़गार और ‘रोगी-मित्र’ ज़रूरी? हिमाचल में नीति पर बड़ा सवाल

ट्राई सिटी टाइम्स | मुख्य संपादक: बी. के. सूद
हिमाचल प्रदेश में बीते एक दशक में चिकित्सा शिक्षा का दायरा तेजी से बढ़ा है। प्रदेश में 6 सरकारी मेडिकल कॉलेज, 1 एम्स और 1 निजी मेडिकल कॉलेज हर वर्ष लगभग 1000 से 1500 तक एमबीबीएस डॉक्टर तैयार कर रहे हैं। यह सिलसिला 5–6 वर्षों से लगातार जारी है, जिसके चलते आज प्रदेश में करीब 4 से 5 हजार युवा डॉक्टर विभिन्न कारणों से बेरोजगारी या अल्प-रोज़गार की स्थिति में खड़े हैं। इनकी संख्या में और वृद्धि ऑल इंडिया सीटों पर बाहर से आने वाले छात्रों और विदेश से पढ़कर लौटने वालों के कारण भी हो रही है, जिससे प्रदेश में प्रशिक्षित चिकित्सकों का बड़ा समूह नौकरी की प्रतीक्षा में है।
इसी प्रकार नर्सिंग और पैरामेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में हिमाचल देश के अग्रणी राज्यों में गिना जाने लगा है। सैकड़ों नर्सिंग कॉलेज और पैरामेडिकल संस्थान हर साल हज़ारों नर्सेज़ और तकनीशियन तैयार कर रहे हैं, लेकिन रोजगार के अवसर न मिलने के कारण इनमें से बड़ी संख्या वर्षों से नियुक्तियों का इंतजार कर रही है। कई युवा ओवरएज होने की कगार पर पहुंच चुके हैं और लंबे समय से निष्क्रिय रहने के कारण अपने हुनर से दूर होते जा रहे हैं। यह विडंबना ही है कि जिन हाथों को अस्पतालों की जरूरत है, वही हाथ बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। वास्तव में, हिमाचली माता-पिता ने अपनी खून-पसीने की कमाई और कई बार कर्ज़ लेकर अपने बच्चों को डॉक्टर, नर्स और तकनीशियन बनाया है, लेकिन बदले में उन्हें रोजगार का भरोसा तक नहीं मिल पा रहा।
ऐसी परिस्थिति में “रोगी-मित्र” और “स्वास्थ्य-मित्र” जैसी व्यवस्थाएँ प्रदेश में सवालों के घेरे में आ रही हैं। सरकार का कहना है कि ये व्यवस्थाएँ अस्पतालों में भीड़ प्रबंधन और मरीजों के मार्गदर्शन के लिए हैं तथा इनका तकनीकी इलाज से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसलिए इनमें विशेष मेडिकल प्रशिक्षण की आवश्यकता भी नहीं रखी गई। सरकार यह दावा भी करती है कि डॉक्टरों व नर्सों की नियुक्तियाँ चरणबद्ध तरीके से होंगी और भविष्य में पदों का विस्तार भी किया जाएगा।
लेकिन जमीनी हकीकत इस दावे से मेल नहीं खाती। जब हजारों प्रशिक्षित डॉक्टर, नर्सेज़ और पैरामेडिक्स प्रदेश में उपलब्ध हैं, तब गैर-तकनीकी “रोगी-मित्र” योजनाओं के विस्तार को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? युवाओं का सवाल बिल्कुल सीधा है—जब प्रदेश में योग्य प्रोफेशनल बड़ी संख्या में मौजूद हैं, तब अस्पतालों में मार्गदर्शन और सहायता के नाम पर गैर–मेडिकल पद क्यों बनाए जा रहे हैं? क्या यह प्रशिक्षित मानव संसाधन की अनदेखी नहीं?
हिमाचल में स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि मौजूदा रिक्त पदों को बिना देरी भरे जाए। मेडिकल, नर्सिंग और पैरामेडिकल शिक्षा की सीटों का निर्धारण भी वास्तविक मांग के अनुरूप किया जाए ताकि बेरोजगारी की समस्या अनियंत्रित न हो। अस्पतालों में तकनीकी और गैर-तकनीकी कार्यों का स्पष्ट विभाजन कर डॉक्टरों और नर्सों की विशेषज्ञता का सही उपयोग सुनिश्चित किया जाए।
आज प्रश्न “रोगी-मित्र” का नहीं, बल्कि नीति और प्राथमिकताओं का है। जब हिमाचल प्रदेश में हजारों प्रशिक्षित युवा अपने भविष्य को लेकर असुरक्षित महसूस कर रहे हों, तब स्वास्थ्य नीति का केंद्र उनकी नियुक्तियाँ और कौशल का संरक्षण होना चाहिए। “रोगी-मित्र” व्यवस्था तभी सही है जब प्रशिक्षित स्टाफ की कमी हो, लेकिन जब प्रदेश में विशेषज्ञ उपलब्ध हैं, तब इस व्यवस्था का विस्तार उलटे सवाल खड़े करता है।
हिमाचल सरकार को चाहिए कि वह इन वास्तविकताओं को स्वीकार करे और स्वास्थ्य क्षेत्र की जरूरतों तथा युवाओं के भविष्य के बीच सामंजस्य स्थापित करे। यही कदम प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करेगा और प्रशिक्षित युवाओं के विश्वास को भी बहाल करेगा।



