Editorial*वेश बदलकर निकलें तो असली प्रदेश दिखेगा, फ्लाइट लेट होने से नहीं*


*वेश बदलकर निकलें तो असली प्रदेश दिखेगा, फ्लाइट लेट होने से नहीं*

संपादकीय: हवाई जहाज़ की देरी और धरातल की सच्चाई
इंडिगो की फ्लाइट लेट होने पर उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री की प्रतिक्रिया ने मीडिया का बड़ा हिस्सा घेर लिया। उड़ान में हुई असुविधा पर उनकी टिप्पणी अपनी जगह हो सकती है, पर यह प्रश्न अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यदि हवाई सफर में मामूली विलंब इतना कष्टकारी लगता है तो सार्वजनिक परिवहन का सहारा लेने वाले लाखों नागरिक हर दिन किन परिस्थितियों से गुजरते होंगे। फ्लाइट में न पायलट यात्रियों से रुखाई से पेश आता है, न केबिन क्रू आवाज़ ऊँची करता है; जबकि सरकारी बसों में यात्रा करने वाले लोगों को अकसर स्टाफ के व्यवहार, भीड़भाड़ और अव्यवस्था का सामना करना पड़ता है। यह अंतर तब और अधिक स्पष्ट हो जाता है जब जनता की आवाज़ का भार केवल सोशल मीडिया पर सुनाई देता है, न कि निर्णय लेने वाले व्यक्तियों के अनुभवों में।
प्रदेश प्रशासन से लगातार यही अपेक्षा रही है कि अधिकारी और मंत्री जमीन से जुड़े तथ्यों को समझने के लिए स्वयं फील्ड में उतरें। यह कल्पना भी कठिन है कि AC वाली SUV में यात्रा करने वाला कोई अधिकारी सड़क के गड्ढों, टूटे मार्गों या अवैध पार्किंग की वास्तविक स्थिति को महसूस कर सके। यदि सप्ताह में एक दिन वरिष्ठ अधिकारी अपनी पहचान छिपाकर दुपहिया वाहन पर अपने क्षेत्र का निरीक्षण करें तो स्थितियाँ स्पष्ट रूप से सामने आएँगी। बिजली और जल शक्ति विभागों की शिकायतें भी इसी श्रेणी में आती हैं—गांवों में अंधेरों की रातें और पानी की अनियमित सप्लाई को कागज़ों से नहीं, प्रत्यक्ष उपस्थिति से ही समझा जा सकता है।
सड़क परिवहन व्यवस्था भी किसी से छिपी नहीं। प्राइवेट बसों और भारी वाहनों का व्यवहार अक्सर असहज और असुरक्षित माहौल पैदा करता है। 10–10 किलोमीटर तक ओवरटेक की मनाही, काला धुआं छोड़ते वाहनों की कतारें, और शिकायत करने पर झगड़े की नौबत—यह सब आम जनता की दिनचर्या का हिस्सा है। सड़क सुरक्षा और कानून व्यवस्था के मानकों का सही आकलन तभी संभव है जब कोई जिम्मेदार व्यक्ति बिना पूर्व सूचना, बिना सुरक्षा घेरे और बिना अपनी पहचान उजागर किए सामान्य मार्गों से गुजरे।
स्वास्थ्य विभाग की स्थिति तो इससे भी अधिक संवेदनशील है। सरकारी अस्पतालों में आम मरीज को घंटों की प्रतीक्षा, दवाओं की कमी, स्टाफ का व्यवहार और बुनियादी सुविधाओं की अनुपलब्धता का सामना करना पड़ता है। लेकिन जब मंत्री या अधिकारी अपने काफिले के साथ अस्पतालों का निरीक्षण करते हैं, तो व्यवस्थाएँ पल भर में संवर जाती हैं, डॉक्टर अनुशासन की उत्कृष्ट मिसाल बन जाते हैं और स्टाफ का आचरण अचानक ‘आदर्श’ हो उठता है। अस्पतालों की वास्तविकता तब ही सामने आएगी जब कोई मंत्री मास्क लगाकर, बिना परिचय, बिना काफिले और बिना तामझाम के एक आम मरीज की तरह पर्ची कटवाए, कतार में खड़ा हो, भीड़ का इंतजार झेले और वही प्रक्रियाएँ अपनाए जो जनता हर दिन करती है।
सच्चाई यह है कि प्रदेश की जमीनी हकीकत को कागज़ों के डोजियर, तैयार रिपोर्टों या VIP विज़िट के लिए किए गए प्रबंध नहीं बताते। सच वहाँ दिखाई देता है जहाँ अधिकारी और मंत्री शायद ही जाते हैं—वह सड़कें, वह बसें, वे अस्पताल, वे दफ्तर जिनकी धूल और भीड़ आम नागरिकों के जीवन का हिस्सा हैं।
सरकारें तब सफल होती हैं जब वे वास्तविकता को सजा-संवारा हुआ रूप न मानकर उसी रूप में स्वीकारें जैसी वह धरातल पर है। शायद अब समय आ गया है कि फैसले उड़ानों की असुविधा पर नहीं, बल्कि जमीन की सच्चाई पर आधारित हों।



