Editorial “*स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत : VIP का सरकारी अस्पतालों से परहेज़, प्राइवेट की ओर भागमभाग और HIMCARE का अंत*”
VIP का सरकारी मेडिकल कॉलेजों से परहेज़ जब नेता ही IGMC, टांडा और PGI पर भरोसा नहीं करते तो आम जनता का क्या होगा?


स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत , हमारी और सरकार की चुप्पी

आज देश और प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं की असलियत किसी से छिपी नहीं है। यह स्थिति इतनी भयावह है कि जब कोई केंद्रीय मंत्री या बड़ा नेता बीमार होता है तो उसका इलाज न तो शिमला के आईजीएमसी में होता है, न टांडा मेडिकल कॉलेज में और न ही चंडीगढ़ के PGI जैसे संस्थानों में। यह वही संस्थान हैं जिन्हें सरकारें “सुपर स्पेशियलिटी” का तमगा देकर पेश करती हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि नेता खुद भी इन अस्पतालों का रुख करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। सवाल बड़ा है कि अगर ये अस्पताल इतने सक्षम हैं तो नेता इनका लाभ क्यों नहीं लेते? क्यों वे सीधे मेदांता, अपोलो, मैक्स, आईवी या फॉर्टिस जैसे निजी अस्पतालों की ओर दौड़ते हैं? इसका एक ही मतलब है—चाहे जितने भी बड़े मेडिकल इंस्टिट्यूट खड़े कर दिए जाएं, असल इलाज वहां नहीं मिलता, केवल ढांचा खड़ा कर देने से स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर नहीं हो जातीं।
विडंबना यह भी है कि जब कोई मंत्री या वीआईपी सरकारी अस्पताल में कदम रखता है तो वहां का पूरा स्टाफ—डायरेक्टर, प्रिंसिपल, विभागाध्यक्ष से लेकर जूनियर डॉक्टर तक—लाइन लगाकर खड़ा हो जाता है। फिर भी वे अस्पताल नेताओं और अफसरों का भरोसा नहीं जीत पाते। अगर ऐसी परिस्थितियों में आम जनता इलाज के लिए वहां जाती है, तो उसका हश्र सहज ही समझा जा सकता है। गरीब और सामान्य मरीज वहां घंटों कतारों में खड़े रहते हैं, दवाओं और जांचों के लिए चक्कर काटते रहते हैं और कई बार इलाज मिलने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। वास्तव में आम आदमी के लिये इन अस्पतालों की स्थिति तो पशु चिकित्सालयों से भी बदतर प्रतीत होती है।
अब तो हालात और भी खराब हो चुके हैं। हिमाचल में गरीबों और मध्यम वर्ग के लिए राहत की सांस रही HIMCARE योजना भी बंद कर दी गई है। पहले तक HIMCARE के जरिए लोग निजी अस्पतालों में जाकर इलाज करा सकते थे, लेकिन अब वह सहारा भी छिन चुका है। यानी सरकारी अस्पतालों में इलाज न मिलने की मार तो थी ही, अब निजी अस्पताल भी गरीब और आम लोगों के लिए बंद हो गए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार यह व्यवस्था किसके लिए है? न तो सरकारी अस्पतालों पर भरोसा किया जा सकता है और न ही निजी अस्पतालों में आम लोगों के लिए दरवाज़े खुले हैं, तो गरीब आदमी जाएगा कहां? क्या उसका जीवन किसी मंत्री के जीवन से कम मूल्यवान है?
लेकिन दोष केवल नेताओं का नहीं है। असली जिम्मेदारी हम मतदाताओं की भी है, विशेष रूप से पढ़े-लिखे मतदाताओं की, जो बार-बार सही प्रतिनिधि चुनने में असफल रहते हैं। जहां लोग बार बार उन उम्मीदवारों को प्राथमिकता देती है जिनकी प्राथमिकताएं सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से कहीं आगे दिखावे, भवन निर्माण और वोट बैंक की राजनीति में सिमटी रहती है।
विडंबना यह भी है कि जब कोई मंत्री या विधायक निजी अस्पताल में भर्ती होता है तो उसका पूरा खर्च जनता की गाढ़ी कमाई से भरा जाता है। सरकार खुद मानो यह स्वीकार कर चुकी है कि सरकारी अस्पतालों में इलाज संभव नहीं है। जब नेताओं का इलाज जनता के पैसों से निजी अस्पतालों में हो सकता है, तो उसी जनता को यह सुविधा क्यों नहीं दी जा सकती? क्यों न सरकार निजी अस्पतालों के साथ समझौता करके हर नागरिक को स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी के तहत मेडिकल कवर उपलब्ध कराए? ताकि समाज के अंतिम छोर पर खड़ा गरीब इंसान भी यह भरोसा कर सके कि उसकी जान की कीमत भी उतनी ही है जितनी किसी मंत्री या वीआईपी की है।
आज जरूरत है कि हम केवल नाराज़गी व्यक्त करने या सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने तक सीमित न रहें। हमें यह समझना होगा कि असली राष्ट्रनिर्माण हथियारों की खरीद, ऊंची-ऊंची इमारतों या दिखावटी योजनाओं से नहीं, बल्कि सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं से होता है। जब तक अस्पतालों में गरीब का इलाज नहीं होगा, जब तक बच्चों को बेहतर शिक्षा नहीं मिलेगी, जब तक बेरोजगार को काम नहीं मिलेगा, तब तक लोकतंत्र का अर्थ केवल सत्ता बदलने तक सीमित रह जाएगा।
यह सच है कि स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा केवल सरकार की नाकामी नहीं बल्कि हमारी चुप्पी और हमारी गलत प्राथमिकताओं का नतीजा है। जब तक हम सही प्रतिनिधि चुनने की हिम्मत नहीं करेंगे और जब तक हम स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की मांग नहीं करेंगे, तब तक गरीब कतारों में खड़े-खड़े दम तोड़ते रहेंगे और वीआईपी हमारे पैसों से मेदांता और अपोलो में इलाज करवाते रहेंगे। यही असली कड़वी हकीकत है जिसे हमें स्वीकार भी करना होगा और बदलने के लिए आवाज़ भी उठानी होगी।