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Editorial :*भ्रष्टाचार पर वार: नेपाल में उठे शोले और भारत के लिए बड़ा प्रश्न।*

 

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भ्रष्टाचार पर वार: नेपाल में उठे शोले और भारत के लिए बड़ा प्रश्न।

Tct ,bksood, chief editor

भारत के पड़ोसी देशों की हलचलें हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि जब भ्रष्टाचार और कुप्रशासन जनता के सब्र की सीमा लांघ जाते हैं, तो सड़क ही अंतिम अदालत बन जाती है। श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान और अब नेपाल – चारों जगह अलग-अलग घटनाएं घटीं, लेकिन उनका सार एक ही है: जब शासक वर्ग जनता की पीड़ा से कट जाता है, तो सत्ता की जड़ें हिल जाती हैं।

श्रीलंका का उदाहरण हमारे सामने ताज़ा है। वहां बढ़ती महंगाई, विदेशी कर्ज़ और नेताओं की भ्रष्ट नीतियों ने देश को इस कदर झकझोर दिया कि राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा। बांग्लादेश में हाल ही में जिस तरह जनता का गुस्सा फूटा और प्रधानमंत्री को भारत में शरण लेनी पड़ी, वह दिखाता है कि लोकतांत्रिक ढांचा भी भ्रष्टाचार के बोझ तले ढह सकता है। भूटान, जिसे शांतिप्रिय देश माना जाता था, वहां भी बेरोज़गारी और अवसरों की कमी से युवाओं का बड़े पैमाने पर विदेश पलायन हो रहा है। यह इस बात का संकेत है कि अगर शासन भरोसा खो देता है, तो जनता अपने रास्ते खुद बनाती है।

अब नेपाल – यहां लोगों का धैर्य जवाब दे चुका है। सत्ता की ऐशो-आराम वाली जीवनशैली और जनता की तंगहाली ने ऐसा अंतर पैदा कर दिया है कि आज सड़कों पर उठे शोले पूरे दक्षिण एशिया को हिला रहे हैं। जब आवाज़ दबाने की कोशिश होती है, तो वही आवाज़ और बुलंद होकर सामने आती है। यही कारण है कि नेपाल में आंदोलन अब बेकाबू होता जा रहा है।

भारत के लिए यह घटनाक्रम साधारण नहीं है। यहां भी जनता की परेशानियां कम नहीं हैं। महंगाई लगातार लोगों की कमर तोड़ रही है, बेरोज़गारी युवाओं को निराश कर रही है और आए दिन सामने आने वाले घोटाले व्यवस्था की सच्चाई उजागर कर रहे हैं। हाल ही में भर्ती घोटालों और सरकारी योजनाओं में हुए भ्रष्टाचार ने आम लोगों का भरोसा हिलाया है। किसानों का बार-बार सड़कों पर उतरना और कर्मचारियों का पेंशन वतनख्वाह को लेकर आंदोलित होना बताता है कि लोगों का धैर्य सीमित है।

फर्क सिर्फ इतना है कि आज की पीढ़ी पहले जैसी नहीं है। 1960, 70, 80 या 90 के दशकों में लोग भ्रष्टाचार, गरीबी और अन्याय को चुपचाप सह जाते थे। तब सूचना के साधन भी सीमित थे – अख़बार, रेडियो और टीवी, जिन पर राजनीतिक दल आसानी से नियंत्रण कर लेते थे। इसी कारण 1984 में सिखों का नरसंहार हुआ या 1990 में तीन लाख कश्मीरी पंडितों का घाटी से विस्थापन, तब भी देशभर में वैसा आक्रोश नहीं उठा जैसा उठना चाहिए था।

लेकिन अब सूचना युग ने सब कुछ बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जनता को ताकतवर बना दिया है। अब कोई भी घटना दबाना नामुमकिन है। आज की जनरेशन X, Y, Z भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और भेदभाव के प्रति शून्य सहनशीलता रखती है। यह पीढ़ी तुरंत समाधान, रोजगार और बेहतर जीवन चाहती है, और जब व्यवस्था जवाब नहीं देती, तो यह सीधे सड़कों पर उतर आती है। यही वजह है कि आज झूठ और फ़रेब के लंबे समय तक टिकने की गुंजाइश नहीं बची है।

नेपाल की आग भारत के लिए सीधी सीख है। जनता अब नेताओं के झूठ और फ़रेब को चुपचाप बर्दाश्त नहीं करेगी। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि समय रहते सुधार करो। सत्ता अब शाही ठाठ का साधन नहीं, बल्कि सेवा का दायित्व है। यदि इस मूल सिद्धांत को न समझा गया तो हालात भारत में भी वैसा ही रूप ले सकते हैं जैसा पड़ोसी देशों में देखने को मिल रहा है।

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