शख्शियत

Editorial *शांता कुमार एक व्यक्तित्व एक विचार*

ईमानदारी और स्पष्टवादिता की मिसाल, जिन्होंने दल से पहले राष्ट्र हित को रखा

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शांता कुमार एक इंसान नहीं एक विचार है राजनीति में शिक्षा का संस्कार है

Tct ,bksood, chief editor

शांता कुमार का जीवन और राजनीतिक सफर हिमाचल प्रदेश की राजनीति और भारतीय लोकतंत्र की एक अनूठी कहानी है। कांगड़ा ज़िला के गढ़ जमुला में 12 सितंबर 1934 को जन्मे शांता कुमार ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत बहुत ही साधारण परिस्थितियों से की थी। प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय से प्राप्त करने के बाद उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर किया और फिर राजनीति की ओर कदम बढ़ाया। उनके भीतर सेवा और समाज सुधार की भावना शुरू से ही प्रबल रही और यही कारण था कि 1965 से 1968 तक वे कांगड़ा ज़िला परिषद के अध्यक्ष बने। यह उनकी सार्वजनिक जीवन में पहली महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसने आगे चलकर उन्हें प्रदेश और देश की राजनीति में स्थापित किया।

1972 में वे पहली बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए और 1980 तक लगातार सक्रिय सदस्य रहे। 1977 में जब पूरे देश में आपातकाल के बाद नई राजनीतिक चेतना जागृत हुई, तो शांता कुमार जनता पार्टी के नेता के रूप में उभरे। उसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी ने 68 में से 53 सीटें जीतीं और शांता कुमार को हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। यह उनका पहला कार्यकाल था, जिसने उन्हें एक सक्षम और सशक्त प्रशासक के रूप में पहचान दिलाई। 1980 से 1985 तक वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे और प्रदेश में वैकल्पिक राजनीति के मजबूत स्तंभ के रूप में स्थापित हुए। 1990 में वे दूसरी बार मुख्यमंत्री बने और इस दौरान प्रदेश में कई विकास योजनाओं की नींव रखी।

उनका राजनीतिक सफर केवल प्रदेश तक सीमित नहीं रहा। 1989 में वे पहली बार कांगड़ा से लोकसभा के लिए चुने गए और कांग्रेस की दिग्गज उम्मीदवार चंद्रेश कुमारी को 59,204 मतों से हराया। 1998 में उन्होंने फिर से कांगड़ा से चुनाव जीता और कांग्रेस के सत महाजन को 59,235 मतों से पराजित किया। 1999 के चुनाव में भी उन्होंने सत महाजन को हराया और इस बार उनका विजय अंतर लगभग 100,742 मतों का रहा। 1999 से 2002 तक वे केंद्र सरकार में उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री रहे और इसके बाद 2002 से 2003 तक ग्रामीण विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। 2004 में हालांकि उन्हें हार का सामना करना पड़ा जब कांग्रेस के चंदर कुमार ने उन्हें लगभग 17,791 मतों से पराजित किया। लेकिन 2014 में वे पुनः कांगड़ा से लोकसभा पहुँचे और इस बार एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की — उन्होंने 4,56,163 वोट प्राप्त किए जबकि चन्द्र कुमार को 2,86,091 वोट मिले। इस प्रकार उनका विजय अंतर 1,70,072 मतों का रहा, जो उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है।

उनकी संसदीय यात्रा में कई महत्वपूर्ण पड़ाव रहे। 1998-99 में वे लोकसभा की नियम समिति, रक्षा संबंधी स्थायी समिति और ग्रंथालय समिति के सदस्य रहे। 1999 से 2002 तक केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते हुए उन्होंने खाद्य आपूर्ति व्यवस्था और उपभोक्ता हितों की दिशा में काम किया। 2002 से 2003 तक ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में उन्होंने रोजगार और ग्रामीण बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में योजनाएँ चलाईं। 2008 से 2014 तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे और इस दौरान वाणिज्य पर स्थायी समिति के अध्यक्ष और उपसभापति पैनल के सदस्य भी बने। 2014 में लोकसभा में वापसी के बाद उन्हें लोक लेखा समिति और खाद्य निगम पुनर्गठन की उच्च स्तरीय समिति का अध्यक्ष बनाया गया।

उनका राजनीतिक जीवन केवल सत्ता तक सीमित नहीं रहा। शांता कुमार साहित्य और रचनात्मक लेखन में भी सक्रिय रहे हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें राजनीति, समाज और आध्यात्मिकता पर उनके विचार परिलक्षित होते हैं। वे विवेकानंद मेडिकल रिसर्च ट्रस्ट, पालमपुर के अध्यक्ष भी हैं और स्वास्थ्य सेवाओं के विकास में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा।

शांता कुमार का राजनीतिक सफर संघर्ष, सेवा और सिद्धांतों से परिपूर्ण रहा है। एक ओर उन्होंने विधानसभा में विपक्ष के नेता से लेकर मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया, दूसरी ओर संसद में एक प्रभावशाली सांसद और केंद्रीय मंत्री के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनकी ईमानदारी, स्पष्टवादिता और सामाजिक सरोकारों के कारण उन्हें हिमाचल की राजनीति में एक नैतिक धरोहर के रूप में देखा जाता है। आज जब हम उनके योगदान को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने न केवल हिमाचल प्रदेश की राजनीति को दिशा दी बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छाप छोड़ी।

राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पहचान और भी मजबूत हुई। वे 1989 में पहली बार कांगड़ा लोकसभा क्षेत्र से चुने गए और 9वीं लोकसभा में पहुंचे। 1998 में उन्होंने कांगड़ा से कांग्रेस के दिग्गज सत महाजन को 59,235 मतों से हराकर 12वीं लोकसभा में प्रवेश किया। 1999 में उन्होंने फिर सत महाजन को हराया और इस बार विजय अंतर लगभग 100,742 मतों का रहा। 13वीं लोकसभा में वे केंद्र सरकार में उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री बने और 2002 में ग्रामीण विकास मंत्रालय का कार्यभार संभाला। 2004 में वे कांगड़ा से कांग्रेस के चंदर कुमार से लगभग 17,791 मतों से पराजित हुए। लेकिन दस साल बाद, 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने ऐतिहासिक वापसी की और चंदर कुमार को ही 1,70,072 मतों से हराया। इस चुनाव में उन्हें 4,56,163 मत मिले जबकि चंदर कुमार को 2,86,091 मत ही प्राप्त हुए। इस तरह वे चौथी बार लोकसभा पहुंचे और मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में संसद की महत्वपूर्ण समितियों की अध्यक्षता की।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में जब उन्हें खाद्य और उपभोक्ता मामलों का मंत्री बनाया गया तो उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के लिए ऐतिहासिक पहल की। भारतीय खाद्य निगम (FCI) की कार्यप्रणाली सुधारने के लिए बनी समिति की अध्यक्षता उन्होंने की और वही रिपोर्ट आज “शांता कुमार समिति रिपोर्ट” के नाम से जानी जाती है। इस रिपोर्ट ने राशन व्यवस्था को पारदर्शी बनाने, सब्सिडी का सही लाभ गरीब तक पहुँचाने और बिचौलियों की भूमिका खत्म करने की दिशा दिखाई।

शांता कुमार केवल प्रशासक या राजनेता ही नहीं, बल्कि संवेदनशील समाजसेवी भी हैं। पालमपुर में कैंसर रोगियों के लिए उन्होंने विवेकानंद मेडिकल रिसर्च ट्रस्ट की स्थापना की। यह ट्रस्ट आज भी गरीब मरीजों को सस्ती और आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध करा रहा है। खास बात यह रही कि इस संस्थान के लिए उन्होंने स्वयं गांव-गांव जाकर आम जनता से चंदा इकट्ठा किया। एक-एक रुपया जनता से लेकर उन्होंने यह अस्पताल खड़ा किया, जो उनकी जनभागीदारी और सेवा भावना का जीवंत उदाहरण है।

उनका साहित्यिक योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण है। “धर्ती बलिदान की” (1962), “हिमालय पर लाल छाया” (1964), “विश्व विजेता विवेकानंद” (1968), “क्रांति अभी अधूरी है” (1985), “दीवार के उस पार” (1995), “तुम्हारे प्यार की पाती” (1999) और “वृंदा” (2007) सहित अनेक कृतियाँ उनके चिंतन और संवेदनशीलता को दर्शाती हैं। इन लेखन कार्यों में हिमालय के प्रति उनका प्रेम, सामाजिक प्रश्नों पर उनकी गहन सोच और भारतीय संस्कृति की जड़ों से उनका जुड़ाव स्पष्ट झलकता है। वे उन दुर्लभ नेताओं में से हैं जो राजनीति और साहित्य दोनों में समान रूप से सक्रिय रहे।

व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो शांता कुमार हमेशा सादगी के प्रतीक रहे। उन्होंने 3 अगस्त 1964 को संतोष शैलजा से विवाह किया। उनके चार संतानें हैं — एक पुत्र और तीन पुत्रियाँ। दिसंबर 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान उनकी धर्मपत्नी का निधन हो गया, जो उनके जीवन की एक गहरी व्यक्तिगत क्षति थी। इसके बावजूद वे आज भी समाजसेवा और साहित्य सृजन में सक्रिय हैं। उन्होंने कभी सत्ता या पद का व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाया। आम जीवन जीने वाले शांता कुमार को देखकर ही कहा जाता है कि वे पद से नहीं, बल्कि अपने चरित्र और सिद्धांतों से बड़े बने। उनके जीवन का एक प्रेरणादायक प्रसंग यह है कि एक बार कार्यकर्ताओं ने उनसे कहा कि वे मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, फिर भी इतने साधारण ढंग से क्यों रहते हैं। इस पर उनका उत्तर था — “नेता की पहचान उसकी गाड़ी या बंगले से नहीं, जनता के विश्वास से होती है।” यही विश्वास आज भी उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी पूंजी है।

शांता कुमार का जीवन केवल हिमाचल ही नहीं, पूरे देश के लिए प्रेरणा है। उन्होंने यह दिखाया कि राजनीति यदि ईमानदारी और सेवा भाव के साथ की जाए तो वह जनहित का सबसे बड़ा साधन बन सकती है। उनकी सोच, उनका लेखन और उनका काम आज भी यह संदेश देता है कि सत्ता साधन है, साध्य नहीं। उनके योगदान ने भारतीय राजनीति को यह सीख दी कि साफ-सुथरी राजनीति केवल संभव ही नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए आवश्यक भी है।
नीचे दिए गए लिंक में उनके एक पुराने साथी मित्र तथा उनके मंत्रिमंडल के सदस्य महेंद्र नाथ सोफत जी ने उनके बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई है जिसे आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं!🙏

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