

राजनीतिक दलों की बढ़ती इनकम: जनता के पैसे पर राजनीति क्यों?

भारत में राजनीति केवल विचारधारा और नीतियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह अब एक बड़े वित्तीय खेल का हिस्सा बन चुकी है। हाल ही में सामने आए आंकड़ों के अनुसार, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियों की वार्षिक आय में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। बीजेपी की इनकम 83% बढ़कर 4,340.5 करोड़ रुपये हो गई, जबकि कांग्रेस की आय 170% बढ़कर 1,225 करोड़ रुपये पहुंच गई। यह सवाल उठता है कि आखिरकार ये पार्टियां इतना पैसा कहां से ला रही हैं, और इसका इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है?
जनता के पैसे पर राजनीतिक खेल
भारतीय राजनीति में चुनावी खर्चे दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं। पार्टियों को अपने प्रचार अभियानों, रैलियों, सोशल मीडिया कैंपेन और अन्य प्रचार माध्यमों के लिए भारी धनराशि की जरूरत होती है। इसका अधिकांश हिस्सा चुनावी बॉन्ड, कॉर्पोरेट चंदे और अन्य स्रोतों से आता है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब पार्टियों के पास हजारों करोड़ रुपये का फंड मौजूद है, तो वे जनकल्याण योजनाओं के नाम पर सरकारी खजाने से क्यों खर्च करती हैं?
1. चुनावी वादों की हकीकत
हर चुनाव से पहले राजनीतिक दल मुफ्त बिजली, पानी, राशन, बेरोजगारी भत्ता और कई अन्य योजनाओं की घोषणा करते हैं। ये सुविधाएं जनता को तो मिलती हैं, लेकिन इनका खर्च सरकारी खजाने से किया जाता है, न कि पार्टी फंड से। सरकारी खजाना मुख्य रूप से टैक्स के जरिए भरता है, जिसमें गरीब और मध्यम वर्गीय लोग जीएसटी और अन्य करों के रूप में योगदान देते हैं।
अगर पार्टियों को मुफ्त योजनाओं का इतना ही शौक है, तो उन्हें अपनी पार्टी की फंडिंग से यह खर्च उठाना चाहिए। लेकिन वे ऐसा नहीं करतीं, क्योंकि सरकारी खजाना उनके लिए एक असीमित स्रोत की तरह काम करता है, जिसका बोझ अंततः आम जनता पर पड़ता है।
2. चुनावी बॉन्ड: पारदर्शिता बनाम गोपनीयता
चुनावी बॉन्ड को पारदर्शी राजनीतिक फंडिंग का जरिया बताया गया था, लेकिन यह प्रणाली राजनीतिक दलों को अपारदर्शी तरीके से चंदा लेने की सुविधा भी देती है। बड़े कॉर्पोरेट घराने और उद्योगपति इन बॉन्ड्स के जरिए पार्टियों को मोटी रकम दान करते हैं, जिसका सीधा संबंध सरकारी नीतियों से होता है।
बीजेपी को 2023-24 में 1,685.6 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 828.4 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के जरिए मिले। इससे साफ जाहिर होता है कि राजनीति अब जनसेवा से ज्यादा एक कॉरपोरेट बिजनेस बन गई है, जहां कंपनियां अपने फायदे के लिए चंदा देती हैं और बदले में नीतिगत लाभ प्राप्त करती हैं।
3. सरकारी योजनाएं या वोट बैंक पॉलिटिक्स?
सरकारी फंड से चलाई जाने वाली मुफ्त योजनाओं का एक बड़ा उद्देश्य जनता को लुभाना और वोट बैंक मजबूत करना होता है। हालांकि, इन योजनाओं के लिए सरकार को या तो अधिक टैक्स लगाना पड़ता है या फिर कर्ज लेना पड़ता है, जिसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
दूसरी ओर, राजनीतिक दलों के पास पहले से ही हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति और फंडिंग उपलब्ध होती है। सवाल यह उठता है कि अगर वे वास्तव में जनता की भलाई चाहती हैं, तो वे अपने पार्टी फंड से गरीबों की मदद क्यों नहीं करतीं?
समाधान क्या हो सकता है?
चुनावी बॉन्ड की पारदर्शिता
- चुनावी बॉन्ड के जरिए दिए गए चंदों का पूरा ब्यौरा सार्वजनिक होना चाहिए ताकि जनता जान सके कि किस पार्टी को किसने कितनी रकम दी है और बदले में उन्हें क्या लाभ मिला।
फ्री योजनाओं का खर्च पार्टी फंड से हो
- यदि कोई राजनीतिक दल मुफ्त बिजली, पानी या अन्य सुविधाएं देने का वादा करता है, तो उसे अपने पार्टी फंड से इसे लागू करना चाहिए, न कि सरकारी खजाने से।
राजनीतिक दलों की ऑडिटिंग और कैपिंग
- राजनीतिक पार्टियों की वार्षिक आय और उनके खर्च की कड़ी ऑडिटिंग होनी चाहिए। इसके अलावा, पार्टियों की फंडिंग पर एक निश्चित सीमा तय की जानी चाहिए ताकि चुनावों में धनबल का प्रभाव कम हो।
जनता को जागरूक बनना होगा
- जब तक जनता यह नहीं समझेगी कि उनके टैक्स का पैसा किस तरह बर्बाद किया जा रहा है, तब तक यह सिलसिला जारी रहेगा। लोगों को उन पार्टियों से सवाल करना चाहिए जो अपने चुनावी खर्चों के लिए बड़े कॉरपोरेट्स से चंदा लेती हैं लेकिन आम जनता की बुनियादी जरूरतों के लिए सरकारी खजाने का इस्तेमाल करती हैं।
निष्कर्ष
राजनीतिक दलों की आय में बेतहाशा वृद्धि दिखाती है कि भारतीय राजनीति अब केवल जनसेवा का माध्यम नहीं रह गई, बल्कि यह एक मुनाफा कमाने वाली इंडस्ट्री बन चुकी है। यदि पार्टियों को सच में जनता की भलाई करनी है, तो उन्हें अपने पार्टी फंड का उपयोग करना चाहिए, न कि जनता के टैक्स के पैसे का। वरना, यह लोकतंत्र के नाम पर जनता की मेहनत की कमाई को लूटने का एक संगठित तरीका बनकर रह जाएगा। ऊपर दिए आंकड़े सांकेतिक है इनमें बदलाव हो सकता है व हर रोज होता है यह लेख भारतीय राजनीति सिस्टम पर एक कटाक्ष है किसी का विरोध नहीं।
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