*Hare Krishna:*सुदामा की सोच: रितु सूद*



Hare Krishna:*सुदामा की सोच: रितु सूद*
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भीलों से लुट कर सुदामा अपने गाँव आ गए थे… मोतियों की माला हीरों का हार यहाँ तक की पीताम्बरी भी भीलों ने लूट ली थी।
किन्तु सुदामा को कोई दुःख नही था, हाँ सुशीला की श्रद्धा श्रीकृष्ण के प्रति कम हो जाएगी ये डर अवश्य था मन में। “द्वारिका जाओ” कहती रहती थी, चार मुट्ठी चिउरा भी वही माँग कर लाई थी,मन में आस तो थी कि द्वारिकाधीश कुछ तो देंगे,पर उसने नही दिया।
सुदामा गाँव में पहुँचे हैं, सोचते हुए पहुँचे, दे देता, अपार सम्पदा तो थी उसके पास। मैं तो ठीक हूँ, मेरी पीताम्बरी भी छीन ली भीलों ने, मैं छाल पहन कर चल रहा हूँ, पर सुशीला का क्या! वो तो मुझे सुनाएगी,तेरे बारे में भी बोलेगी… कहेगी कृपण है तुम्हारा सखा।
यार! कुछ तो दे देता, मुझे नही अपनी भाभी को ही दे देता।
सुदामा यही सोचते हुए आ पहुँचे हैं अपने गाँव।
ये छाल! वो पीताम्बरी कितनी अच्छी थी, कितनी अच्छी लग रही थी।
वो भी छीन ली उन भीलों ने… अरे! कुछ नही तो कम से कम एक सुवर्ण मुद्रा ही दे देता… तेरा क्या जाता उसमें, अरे! तू तो “श्रीनिवास” है, लक्ष्मी तेरे चरणों में ही तो थी…
सुदामा यही सोचते हुए अपने गाँव में प्रवेश किए।
गाँव के लोगों ने सुदामा जी को देखा तो हंसे, और ऐसी स्थिति में देखकर तो और हंसने लगे।
सुदामा जी को कोई हंसे या रोए इससे क्या अन्तर पड़ने वाला था… किन्तु सुदामा फिर दुखी हो जाते हैं, कृष्ण! तेरा नाम ख़राब होगा, मेरी सुशीला ही क्यो मेरा पूरा गाँव तेरे नाम को लेकर हंसेगा… बात मेरी होती तो कोई नही, पर तुझे बोलेंगे… सुदामा इधर उधर बिना देखे अपनी झोपड़ी में जाना चाहते हैं, वो चल भी रहे हैं।
सब जानता है तू, पर व्यवहार नही जानता… फिर सुदामा किंचित मुस्कुरा जाते हैं, वैसे व्यवहार तो मैं भी नही जानता… पर कुछ तो दे देता यार! अब सुशीला क्या क्या सुनाएगी।
सुदामा जैसे ही अपनी झोपड़ी के पास पहुँचे,
दो द्वारपालों ने सुदामा को रोक दिया… आप नही जा सकते भीतर।
सुदामा चौंक गए… मैं कहीं वापस द्वारिका नगरी में तो नही पहुँच गया! फिर ध्यान से अपने गाँव को देखा, नही ये तो अपना ही गाँव है, पर ये महल! यहाँ तो मेरी झोपड़ी थी… सुदामा जी घबड़ाए, ये क्या हुआ… मैं द्वारिका क्या गया, यहाँ किसी श्रीमंत ने मेरी झोपड़ी पर अपना महल बना दिया। पर सुदामा द्वारपाल से ही पूछते हैं, इस महल का मालिक कौन है?
“श्रीश्री सुदामा जी महाराज”… द्वारपालों ने उत्तर दिया।
अरे! मैं इस का मालिक! महल का मालिक!
नही, कोई सुदामा नाम का सेठ होगा, उसका भी नाम सुदामा ही होगा।
अच्छा! सुनो, उन सेठ जी को बुलाओ… सुदामा ने कहा।
वो तो पण्डित जी हैं सेठ जी नही, द्वारपालों ने फिर उत्तर दिया।
सुदामा चकित हैं, पण्डित तो मैं ही हूँ, पर ये महल मेरा कैसे है?
भैया! तो उन पण्डित जी को ही बुला दो। सुदामा ने फिर द्वारपालों से कहा।
वो तो द्वारिका गए हैं। द्वारपाल की बात सुनकर सुदामा जी फिर चौंक गए थे।
सोचा अब तो भीतर ही जाऊँ, महल में ही जाकर देखूँ, कि क्या स्थिति है।
सुदामा जी महल में जानें के लिए तैयार ही थे कि फिर रुक गए… कहीं मुझे धक्का दे दिया इन पहलवान द्वारपालों ने तो मेरी तो यही समाधि बन जाएगी, सुदामा अब देख रहे हैं उस महल को।
स्तब्ध चकित हैं सुदामा… अरे यहाँ तो तुलसी का पौधा था, पर अब तो चंदन वृक्ष खड़े हैं।
महल के चारों ओर घूम घूम के देख रहे हैं सुदामा, झोपड़ी की जगह महल खड़ा कर दिया।
और महल भी सामान्य नही है कृष्ण के टक्कर का महल है… पर ये कौन है।
सुदामा जी का ध्यान महल की ओर ही था कि तभी,
माता जी!थोड़ा दूर से…
महल से आयीं थीं ये महिला, इनके साथ आठ सखियाँ थीं, चार वाम भाग में और चार दाहिने भाग में, मध्य में महल की ही मालकिन आयी थीं, उनके हाथों में पूजा की थाल थी… पग के नूपुर, ध्वनि अद्भुत कर रहे थे। उन महिला ने आकर सुदामा जी के चरणों में वन्दन किया था… सुदामा जी को लगा महल की मलिकन आयी है और ब्राह्मण के चरण छू रही है।
माता जी! थोड़ा दूर से…
सुदामा जी बोल पड़े थे।
माता जी? सुशीला ने रोष से देखा सुदामा जी के मुख में।
सुदामा ने जैसे ही देखा सुशीला को… सुशीला! अरे वाह! ये साड़ी, ये हाथों के कड़े, सोने के हैं? हाँ, हाँ सब सोने के ही हैं, सुशीला बोली।
झोपड़ी कहाँ? ये महल अपना है! सुशीला ने कहा।
महल अपना है! सुदामा जी कुछ समझ नही पा रहे हैं कि इतना सब!
पतिदेव! अब महल में चलिए ना!
हाँ, हाँ चलो महल में, सुदामा जी लाठी उठाए… अब छोड़िए इस पुरानी लाठी को, हमारे पास सोलह हजार एक सौ आठ लाठियाँ हैं! सुशीला बोल उठी।
सोलह हजार एक सौ आठ? सुदामा जी चौंके।
हाँ, देखिए वो हमारी गौशाला, उसमें भी सोलह हजार एक सौ आठ गौएँ हैं।
आपके पादत्राण भी सोलह हजार एक सौ आठ हैं, सुशीला बोलती जा रही है… अपने पतिदेव सुदामा जी को महल दिखा रही है…
सुदामा को हंसी आ गयी, उसके मित्र ने कैसा विनोद किया था उसके साथ। “छाता भी सोलह हजार एक सौ आठ हैं, मेरी साड़ी भी सोलह हजार एक सौ आठ हैं, पतिदेव! आपकी धोती भी सोलह हजार एक सौ आठ हैं”… सुशीला बोलती गयी, पर सुदामा जी वहीं बैठ गए… उनके नेत्रों से अश्रु धार बह चले थे, वो अब हिलकियों से रो पड़े।
मुझे क्षमा कर दे कृष्ण! मुझे क्षमा कर दे, मैं भूल गया था कि तू तो यशोदा का पुत्र है ना!
दूसरे को “यश” देना तुझे आता है, मेरे सामने तू कृपण बना, वहाँ मुझे कुछ नही दिया, पर यहाँ!
अपनी प्रत्येक रानियों से दिलवाया, और स्वयं ने मेरी पीताम्बरी भी भील के रूप में उतरवा ली।
सुदामा जी वहीं बैठ गए… और बस रोते ही जा रहे हैं। हाँ, वो भील तुम्हीं थे, मुझे लूटनें वाले भी तुम्हीं थे, हे सखे! अब मुझे कुछ नही चाहिए, मुझे ये सब अब नही चाहिए।
पतिदेव! ये देखिए पीताम्बरी, सोलह हजार एक सौ आठ हैं, उतारिये ये छाल और पहनिये ये पीताम्बरी… सुशीला ने आकर कहा।
सुदामा जी बस रो रहे हैं… क्या हुआ… आप रोते क्यो हैं? सुशीला पूछ रही है।
देवि! तुम कहती थीं ना, बालक भूखे हैं, बालकों ने कुछ खाया नही हैं।
अब न बालक भूखे रहेंगे, न कोई अभाव रहेगा… सुदामा जी और भी कुछ बोलनें वाले थे पर उनकी वाणी ही अवरुद्ध हो गयी थी।
आप कहाँ जा रहे हैं नाथ! सुशीला ने चरण पकड़ लिए।
सुशीला! मैं रहूँगा तो उसी वट वृक्ष के नीचे जहां बैठकर मैं अपने सखा का स्मरण करता था, तुम रहो, संपत्ति का सदुपयोग करना सुशीला! मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा!
सुदामा जी जानें लगे, सुशीला बिलख उठी… तभी,
“अब ये क्या नाटक लगा दिया मित्र” श्रीकृष्ण प्रकट हो गए थे।
सुदामा जी ने श्रीकृष्ण को देखकर कहा, नाटक तो मेरे साथ तुमने किया है।
बताओ! मैंने तुमसे कभी कुछ भी माँगा? तुम को दुनिया अंतर्यामी कहती है, देख लेते मेरे मन में, सुदामा श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गए थे… नही चाहिए ये सब मुझे कृष्ण!
श्रीकृष्ण कुछ नही बोल सके सुदामा के सामने, उनके भी नेत्र भर आए जब सुदामा ने कहा, मुझे “तुझसे” नही, “तू” चाहिए। श्रीकृष्ण ने उठा लिया सुदामा को और अपने हृदय से लगाते हुए कहा था… जिसे कुछ नही चाहिए मित्र! उसे मैं मिलता हूँ।
सुदामा जी ने इतना अवश्य कहा, मेरे मन में जो था वो इस सुशीला को लेकर था, तुम्हें ये कुछ कहती तो मुझे अच्छा भी लगता, पर इतना सब नही।
सुदामा जी चल पड़े थे उसी वटवृक्ष के नीचे, जहां पूर्ण एकान्त था और अपने सखा का चिन्तन अच्छे से होता था। सुदामा जी को लाख कहा श्रीकृष्ण ने पर सुदामा जी ने महल को और महल की सम्पदा को स्वीकार नही किया।
“मेरे सखा की प्रसादी है ये सम्पदा, विवेक के साथ खर्च करना”… यही कहते रहते थे जब जब परिवार मिलने आता था..!!
*🙏🙏🏿🙏🏾जय श्री कृष्ण*🙏🏻🙏🏽🙏🏼