*करो वो दिन याद जाड़ो की धूप और स्वेटर बुनती गाँव कि महिलायें :लेखिका तृप्ता भाटिया*
*करो वो दिन याद जाड़ो की धूप और स्वेटर बुनती गाँव कि महिलायें :लेखिका तृप्ता भाटिया*
जाड़ो की धूप होती थी
स्वेटर बुनती वो अधेड़ औरतें बुला लेती थी
खेलते-खेलते वो आवाज मारती थीं और मुझे उनकी तरफ़ पीठ करके खड़ा होना होता था
मेरे कंधों से वो आधा बुना स्वेटर नापती थी
मुझे नहीं पता किसके लिए वो स्वेटर बुनती थीं
कौन जो मेरी कद ओ कामत के बराबर था
कोई अजनबी ही होगा। मेरी कन्धा उस स्वेटर से सुशोभित होने पर गर्व करता था ,अब तो हमारे कंधे इस्तेमाल किये जाते हैं ।
आज लोग मेरे कंधे नहीं नापते, मेरी कमाई, मेरा हौंसला, मेरा बजूद नापते हैं
उनकी सिलाइयाँ मुझे उनकी आँखों मे दिखती हैं
मेरे हाथ मे अब बैट, कंचे की जगह कलम होता है।
बहुत कम लोग हैं जो बचपन से जो बनना चाहते हैं वो बड़े होकर वही बनते हैं। मुझे बनना कुछ था और हो कुछ गए हूँ। चलो खैर! जो भी कीजिये ज़िन्दगी में बेहतर कीजिये
अब कोई आंटी स्वेटर नहीं बनाती वो नापने के स्पर्श और भावनायें जीते रहो नहीं रहीं हैं जब शायद आपकी पीठ और जहन में कोई होता था…अब मुझे भी बना हुआ स्वेटर कहाँ मिलता है.. अब सिर्फ जातियाँ धर्म बुनने शुरू कर दिया और फ़िज़ाओं में ज़हर घोल रहे उनकी कलम ख़ंज़र बन चुकी है भले ही खुद को कुछ पत्रकार बोलते हों।अब बुनना छोड़ दिया सबने और उधेड़ना शुरू किया है।