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Editorial जनमंच *सड़ती स्कूटियाँ, ठिठकते सपने — क्या ये हमारी मेधावी बेटियों की नियति है?*

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सड़ती स्कूटियाँ, ठिठकते सपने — क्या ये हमारी मेधावी बेटियों की नियति है?

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लेखक: बी. के. सूद
मुख्य संपादक, Tricity Times

दौसा, राजस्थान — जहाँ शिक्षा के क्षेत्र में बेटियों के लिए प्रेरणा बननी थी, वहीं अब स्कूटी योजना की सैकड़ों गाड़ियाँ लावारिस हाल में धूप-बारिश में खड़ी सड़ रही हैं। 1274 स्कूटियाँ, जिन्हें “कालीबाई भील मेधावी छात्रा स्कूटी योजना” के तहत छात्राओं को वितरित किया जाना था, पिछले दो वर्षों से खुले मैदान में धूल फांक रही हैं। न किसी की जिम्मेदारी तय हुई, न कोई जवाबदेही बन पाई। ये स्कूटियाँ अब एक सरकारी योजना की विफलता नहीं, बल्कि हमारे तंत्र की असंवेदनशीलता की प्रतीक बन चुकी हैं।

यह केवल एक प्रशासनिक चूक नहीं है; यह उन सपनों का अपमान है जो एक गरीब किसान की बेटी ने देखे थे — पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर बनने के, अपने गांव और समाज में बदलाव लाने के। दो साल तक स्कूटियाँ वितरित न होना कोई मामूली बात नहीं। यह उस सोच को उजागर करता है जहाँ घोषणाएँ ज़मीन पर उतरने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।

हर वर्ष शिक्षा को बढ़ावा देने के नाम पर योजनाएँ आती हैं, बजट पास होते हैं, फोटोग्राफर बुलाए जाते हैं, रिबन काटे जाते हैं — पर क्या किसी ने कभी यह जानने की कोशिश की कि असली लाभार्थी तक लाभ पहुंचा भी या नहीं?

इन स्कूटियों का सड़ना सिर्फ लोहे का जंग लगना नहीं है, यह व्यवस्था के मानवता से कट जाने की कहानी है। ये वाहन जिनके जीवन को गति देने वाले थे, वही अब प्रशासनिक सुस्ती की चक्की में पीस दिए गए।

दौसा की यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है:

क्या हम अब भी “बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ” के नारे को गंभीरता से लेते हैं?

क्या योजनाओं का मूल्य सिर्फ उनके उद्घाटन समारोहों तक ही सीमित रह गया है?

और सबसे अहम — क्या हम वास्तव में मेधावी छात्राओं को उनका हक़ देना चाहते हैं, या केवल उन्हें आंकड़ों की गिनती बना देना हमारा लक्ष्य है?

सरकार को इस विषय में त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए। सिर्फ स्कूटियाँ वितरित करना ही समाधान नहीं है — इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, ज़िम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए और भविष्य में ऐसी संवेदनहीनता को रोकने के लिए एक पारदर्शी निगरानी प्रणाली बननी चाहिए।

हमारा फर्ज़ केवल खबर दिखाना नहीं है। हमें सवाल उठाने होंगे — ताकि अगली बार कोई बेटी अपनी मेहनत के बाद भी सिस्टम की लापरवाही से हताश न हो।

बी. के. सूद
मुख्य संपादक, Tricity Times

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