*मेरे दादा जी श्री रत्न लाल मिश्रा — एक अध्यापक नहीं, रौशनी का दीया थे (लेख: हेमांशु मिश्रा)*
“इंडियन सिविल सर्विसेज की नौकरी ठुकराकर शिक्षा की राह चुनी — रत्न लाल मिश्रा जी ने कलम को तलवार बनाया।”

Tctमेरे दादा जी श्री रत्न लाल मिश्रा — एक अध्यापक नहीं, रौशनी का दीया थे!

(लेख: हेमांशु मिश्रा)
आज सुबह जब मुझे 1965 में दिए गए राष्ट्रीय अध्यापक सम्मान का प्रशस्ति पत्र मिला, तो दिल भर आया। यह वही पुरस्कार है जो 5 सितंबर 1965 को उस वक़्त के माननीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने मेरे दादा जी श्री रत्न लाल मिश्रा को प्रदान किया था।
यह प्रशस्ति पत्र तत्कालीन शिक्षा सलाहकार श्री प्रेम कृपाल जी — जो एक जाने-माने शिक्षाविद और भारतीय प्रशासनिक अधिकारी थे — के हस्ताक्षर से अलंकृत है।
श्री रत्न लाल मिश्रा जी कांगड़ा क्षेत्र के पहले स्नातकोत्तर (Post Graduate) थे। उन्होंने गणित और अर्थशास्त्र में दोहरी स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की थी। उनके सामने सिविल सर्विसेस का सुनहरा प्रस्ताव था, मगर उनके दिल में कुछ और ही जल रहा था — कांगड़ा की निरक्षरता उन्हें भीतर से कचोट रही थी।
उन्होंने प्रण किया कि “मैं अपनी ज़िन्दगी शिक्षा की रौशनी फैलाने में लगाऊँगा” — और इसी जुनून के साथ उन्होंने कांगड़ा के G.A.V. स्कूल में अध्यापन शुरू किया।
उनकी मेहनत, अनुशासन और इल्म की गहराई ने उन्हें बहुत जल्दी एक बड़ा मुकाम दिलाया।
स्वर्गीय श्री रत्न लाल मिश्रा जी को बतौर शिक्षक राष्ट्रीय पुरस्कार स्वयं राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने भेंट किया था।
वो सिर्फ़ एक शिक्षक नहीं, बल्कि राह दिखाने वाले रहबर थे। विषय की गहराई, बच्चों की जिज्ञासाओं के जवाब, और समाज के हर मुश्किल सवाल का हल — सब उनके पास था। उनकी शख्सियत में इल्म भी था, अदब भी, और इंसाफ़ की खुशबू भी।
सेवानिवृत्ति के बाद भी लोग दूर-दूर के गाँवों से अपने झगड़े और मसले लेकर उनके पास आते थे। लोग कहते थे — “मिश्रा जी जो कह दें वही इंसाफ़ है।” यह उनके प्रति समाज का एतमाद (विश्वास) था, जो किसी न्यायधीश के फ़ैसले से कम नहीं था।
उनकी ज़िन्दगी का हर पहलू समाज और शिक्षा से जुड़ा हुआ था। जब उनकी रिटायरमेंट पर कांगड़ा शहर की तमाम संस्थाओं ने उन्हें मानपत्र दिए, तो उन शब्दों में सिर्फ़ सम्मान नहीं था, बल्कि यह एहसास था कि एक सच्चा अध्यापक समाज का आधार होता है।
मैंने बचपन से अध्यापक को सिर्फ़ एक पेशा नहीं, बल्कि एक मिशन के रूप में देखा — और यह समझ अपने दादा जी से ही मिली।
जय भारत 🇮🇳





