Editorialजनमंचताजा खबरें

Editorial *इंडिगो संकट में सरकार की खामोशी: आखिर क्यों ठहर गया जवाबदेही का पहिया?*

96 घंटे से ज्यादा समय से फंसे यात्री, बुजुर्ग और शोकग्रस्त परिवार बेहाल—फिर भी न सरकार बोली, न सिस्टम जागा; क्या यह नियमन है या सिर्फ एयरलाइंस को खुश करने वाला धंधा?

Tct

#bksood Editorial
ट्राई सिटी टाइम्स | संपादकीय
मुख्य संपादक – बी. के. सूद

Bksood chief editor TCT

इंडिगो संकट सिर्फ एक एयरलाइन का ऑपरेशनल फेल्योर नहीं है—यह देश की शासन-व्यवस्था, जवाबदेही और प्राथमिकताओं की पोल खोलने वाला आईना है। 500 से अधिक उड़ानें रद्द, हजारों यात्री फंसे, 96 घंटे से अधिक समय तक एयरपोर्ट पर खड़े लोग, बुजुर्ग महिलाएँ, बीमार यात्री, अस्थियाँ लेकर सफर कर रही बेटियाँ… लेकिन सरकार की चुप्पी देखिए—मानो सब सामान्य हो।

अगर यही संकट बसों या ट्रेनों में आया होता तो पूरा सरकारी तंत्र दौड़ पड़ता। मंत्री ट्वीट मारते, मीटिंगें होतीं, कैमरे सामने आ जाते। लेकिन एयरपोर्ट पर खड़े लोग दिखते नहीं—क्योंकि वोट बैंक कम है। यह सोच जितनी खतरनाक है, उतनी ही वास्तविक भी।

सवाल यह नहीं कि इंडिगो क्यों लड़खड़ाई। सवाल यह है कि देश की सबसे बड़ी एयरलाइन के डगमगाते ही पूरा हवाई ढांचा क्यों हिल गया? DGCA के नए FDTL नियम लागू हुए—अच्छी बात थी, सुरक्षा बढ़ती। पर क्या व्यवस्था तैयार थी? क्या क्रू की कमी पहले नहीं पता थी? क्या शेड्यूलिंग में सुधार समय रहते नहीं किया जा सकता था? और जब अव्यवस्था फैली, तो सबसे पहले किसके दबाव में नियमों में ढील दी गई—यात्रियों के लिए या एयरलाइंस के लिए?

सरकार की चुप्पी और विपक्ष का प्रश्न—क्यों झुक रही है सरकार?—यही बताता है कि यह सिर्फ तकनीकी संकट नहीं, नीति-निर्माण का संकट है। सूत्रों के अनुसार एक तरफ 91 साल की बुजुर्ग दो दिनों से एयरपोर्ट पर सोई पड़ी है, दूसरी तरफ एक बेटी अपने पिता की अस्थियाँ लेकर खड़ी है और फ्लाइट नहीं मिल रही; कोई पूछने वाला नहीं। एयरपोर्ट पर हजारों लोग जानवरों की तरह धकेले जा रहे हैं, टर्मिनल भर गए, फर्श कम पड़ गया—फिर भी जिम्मेदारी का भार कोई लेने को तैयार नहीं।

नियामक संस्था पर सवाल उठ रहे हैं कि वह यात्रियों को देख रही है या एयरलाइंस को? सरकार इस बात का जवाब नहीं दे पा रही कि इतने बड़े संकट के दौरान एक भी उच्चस्तरीय प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं हुई। और एयरलाइंस की तरफ से आने वाले वही पुराने जुमले—“अप्रत्याशित देरी”, “ऑपरेशनल कारण”, “असुविधा के लिए खेद”—अब लोगों को चुभने लगे हैं, क्योंकि वास्तविकता इससे कहीं ज्यादा गंभीर है।

यह देश यह स्वीकार नहीं कर सकता कि हवाई यात्रियों की तकलीफ “अमीरों का रोना” है। आज एयरपोर्ट पर खड़े लोग अमीर नहीं—भारतीय हैं, नागरिक हैं, और करदाता हैं। और जब दिक्कत आती है, तो संवैधानिक ढांचा, नियामक व्यवस्था, और सरकार सभी के प्रति समान रूप से जवाबदेह हैं।

मीडिया में सवाल चल रहे हैं सवाल आसान है—देश में हवाई यात्रा का इतना बड़ा संकट आया, पर सरकार क्यों चुप रही? क्यों इंतजार किया गया कि स्थिति 500+ उड़ानों के ढहने तक पहुँचे? क्या नियमन इसलिए है कि एयरलाइंस को सुविधा मिले, या इसलिए कि यात्री सुरक्षित और सम्मानजनक यात्रा करें?

सिस्टम का पहला कर्तव्य आम नागरिक है—एयरलाइन नहीं। संकट का समाधान तभी होगा जब सरकार इस चुप्पी को त्यागकर पारदर्शिता और जवाबदेही से काम लेगी। जब नियामक संस्था यात्रियों को प्राथमिकता देगी। और जब एयरलाइंस को यह स्पष्ट संदेश मिलेगा कि भारत में “धंधा” करने से पहले “जिम्मेदारी” निभानी पड़ेगी।

देश पूछ रहा है—यह क्या धंधा चल रहा है? और जवाब अभी भी किसी के पास नहीं।

5 दिसंबर 2025  की गहन परिचर्चा R भारत tv पर अर्णब गोस्वामी के साथ रात को 11:00 बजे की डिबेट देख सकते हैं

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button