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Editorial :पक्ष-विपक्ष का सौहार्द: भारतीय राजनीति का एक आदर्श अध्याय: नरसिम्हा राव, वाजपई व मनमोहन सिंह

आज जब राजनीति में कटुता और वैमनस्य बढ़ता जा रहा है, जबकि सच्चे नेता वही होते हैं, जो आलोचनाओं को व्यक्तिगत नहीं बनाते और अपने मतभेदों के बावजूद राष्ट्रहित में एकजुट रहते हैं।

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पक्ष-विपक्ष का सौहार्द: भारतीय राजनीति का एक आदर्श अध्याय: नरसिम्हा राव वाजपेई व मनमोहन सिंह

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भारतीय राजनीति में पक्ष और विपक्ष का टकराव हमेशा से रहा है, लेकिन यह टकराव कभी भी व्यक्तिगत कटुता या वैमनस्य का कारण नहीं बनता था। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के बीच का एक किस्सा यह साबित करता है कि राजनीति में सहिष्णुता और आपसी सम्मान का महत्व कितना बड़ा होता है।

साल 1991 में जब मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री का पद संभाला, तो भारत एक बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा था। इस चुनौतीपूर्ण समय में उन्होंने ऐतिहासिक आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। साल 1992 में जब उन्होंने अपना पहला बजट पेश किया, तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उसकी तीखी आलोचना की। वाजपेयी के शब्दों ने गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए मनमोहन सिंह के कोमल स्वभाव को गहराई से आहत किया।

मनमोहन सिंह ने इस आलोचना को व्यक्तिगत रूप से लिया और अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को सौंपने का मन बना लिया। जब राव को यह पता चला, तो वे चिंतित हो गए। उन्होंने वाजपेयी जी से इस मुद्दे पर बात करने का आग्रह किया। वाजपेयी ने इस परिस्थिति की गंभीरता को समझा और मनमोहन सिंह से व्यक्तिगत मुलाकात की।

मुलाकात के दौरान वाजपेयी ने स्पष्ट किया कि विपक्ष का कार्य सरकार की नीतियों पर सवाल उठाना और उसकी आलोचना करना होता है। उन्होंने मनमोहन सिंह को समझाया कि उनकी आलोचना व्यक्तिगत नहीं थी, बल्कि उनकी भूमिका का एक हिस्सा थी। यह संवाद मनमोहन सिंह के लिए प्रेरणा बन गया और उन्होंने अपना इस्तीफा वापस ले लिया।

इस घटना ने न केवल मनमोहन सिंह को राजनीतिक रूप से परिपक्व बनाया, बल्कि उन्हें आलोचनाओं का सामना करने की क्षमता भी दी। अपने प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान, मनमोहन सिंह पर कई बार विपक्ष के तीखे हमले हुए, लेकिन वे कभी विचलित नहीं हुए। यह उनकी परिपक्वता और राजनीतिक समझदारी का प्रतीक था, जो उन्होंने वाजपेयी जैसे अनुभवी नेता से सीखी थी।

इस प्रसंग से हमें यह सबक मिलता है कि राजनीति में मतभेदों के बावजूद आपसी सम्मान और संवाद की गुंजाइश होनी चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह का यह प्रसंग भारतीय लोकतंत्र के उस सुनहरे दौर की याद दिलाता है, जब राजनीति में शालीनता और सहयोग सर्वोपरि थे।

आज जब राजनीति में कटुता और वैमनस्य बढ़ता जा रहा है, यह घटना हमें याद दिलाती है कि सच्चे नेता वही होते हैं, जो आलोचनाओं को व्यक्तिगत नहीं बनाते और अपने मतभेदों के बावजूद राष्ट्रहित में एकजुट रहते हैं।

 

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