

#जनमंच *फाउंटेन बंद, बैरियर चालू: पालमपुर की प्राथमिकताएं किसके लिए*?

- “फाउंटेन को चलाना कोई रॉकेट साइंस नहीं है”
- “क्या बूम बैरियर लगाना ज़रूरी था या फाउंटेन?”
3. पालमपुर का फाउंटेन या कोई साजिश? जनता की उम्मीदों पर पानी क्यों?
पालमपुर जैसे सुंदर और शांतिपूर्ण शहर में जब कोई छोटी-सी सुविधा भी अधूरी रह जाती है, तो यह सिर्फ एक निर्माण कार्य की देरी नहीं बल्कि एक मानसिक पीड़ा बन जाती है। शहर के बीचों-बीच स्थित एक छोटा-सा फाउंटेन—जो न कोई बहुत बड़ा प्रोजेक्ट था और न ही अत्यधिक खर्च वाला—सिर्फ 10% कार्य शेष रह जाने के बावजूद सालों से अधूरा पड़ा है। और यही बात शहरवासियों की उम्मीदों पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है।
फाउंटेन न तो तकनीकी रूप से कोई चुनौती है, न ही इसे पूरा करना किसी सरकारी तंत्र की क्षमता से बाहर है। साफ शब्दों में कहें तो फाउंटेन को चालू करना कोई रॉकेट साइंस नहीं है, जो नगर निगम की समझ से परे हो। यह एक सरल और सौंदर्यपरक प्रोजेक्ट है, जो जनता के लिए उपयोगी हो सकता है, फिर भी इसे जानबूझकर उपेक्षित किया जा रहा है।
नगर निगम को यदि कुछ करना है, तो वह पुरानी टाइलें उखाड़कर नई टाइलें बिछा सकता है। टॉयलेट बना सकता है, सीमेंट की बेंचें हटाकर पार्किंग बना सकता है। लेकिन जनता की भावनाओं और सुविधाओं से जुड़ी चीज़ों के लिए समय और इच्छा शक्ति दोनों का अभाव है। अब जनता यह सवाल पूछ रही है कि क्या बूम बैरियर लगाना ज़्यादा ज़रूरी था या इस अधूरे पड़े फाउंटेन को चालू करना? प्राथमिकताएं किसके लिए तय हो रही हैं?
यह फाउंटेन एक संभावित पर्यटन स्थल बन सकता था। लोग शाम के समय अपने बच्चों के साथ यहां कुछ पल सुकून के बिता सकते थे। ठीक वैसे ही, जैसे कभी विक्रम बत्रा ग्राउंड के किनारे बैठ कर खेल गतिविधियों का आनंद लिया करते थे। लेकिन वह स्थान भी अब इतिहास बन चुका है—वहां देवदार के पौधे उखाड़ दिए गए, बेंचें हटाई गईं और एक और पार्किंग का जन्म हो गया।
अब सवाल यह उठता है कि क्या फाउंटेन का हाल भी वैसा ही होगा? क्या कल को यह जगह भी पार्किंग में तब्दील कर दी जाएगी? क्या सीताराम पार्क को भी धीरे-धीरे ‘आगे खिसका कर’ पार्किंग में तब्दील कर दिया जाएगा? यह शहरवासियों की गंभीर चिंता है।
लोगों का यह भी कहना है कि कहीं न कहीं एक साजिश चल रही है—एक ऐसी योजना जिसमें शहर की हर खूबसूरत, हर सार्वजनिक जगह को खत्म कर दिया जाए और उसे “सुविधा” के नाम पर सीमेंट की कब्रगाह में बदल दिया जाए। यह चिंता तब और बढ़ जाती है जब देखा जाता है कि फालतू प्रोजेक्ट्स में फुर्ती है लेकिन जनभावनाओं से जुड़े कार्यों में ठंडापन।
नगर निगम के खिलाफ लोगों में बढ़ता गुस्सा कोई छिपी बात नहीं है। यह गुस्सा फिलहाल शांत है, परंतु चुनाव के समय यह फूटेगा जरूर। और इसका नुकसान सबसे ज्यादा उस सीधे-सादे उम्मीदवार को होगा, जिसे जनता की नब्ज पकड़ने का भरम देकर आगे कर दिया गया है।
यह सब केवल नगर निगम प्रतिनिधियों शासन की उदासीनता नहीं है, बल्कि लगता है कोई राजनीतिक या निजी रंजिश भी इसमें भूमिका निभा रही है। पर रंजिशों की कीमत जनता क्यों चुकाए?
पालमपुर के लोग अब सवाल पूछ रहे हैं। क्यों नहीं पूरा हो पा रहा यह फाउंटेन? क्यों हर सार्वजनिक स्थान को धीरे-धीरे पार्किंग में बदला जा रहा है? क्या शहर की सुंदरता, लोगों की भावनाएं और बच्चों की मुस्कानें अब नगर निगम की प्राथमिकता नहीं रहीं?
इन सवालों का जवाब देर-सवेर देना ही होगा। और अगर समय रहते नहीं दिया गया, तो जवाब जनता अपने तरीके से देगी—चुनाव में, सड़कों पर, और हर उस मंच पर जहां लोकतंत्र की आवाज़ बुलंद होती है।