पाठकों के लेख एवं विचार

*मेरा आवारा कुत्ता :लेखक संजीव थापर*

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मेरा आवारा कुत्ता

आज फिर सुबह जब मैंने किवाड़ खोला तो सामने वो बैठा था । ना जाने कितने दिनों से लगातार वो हर रोज द्वार पे आ के बैठ जाता था और ना जाने कितनी बार मैंने उसे बड़ी बेरूखी से वहां से दुत्कार कर भगाया था लेकिन मेरी सभी कोशिशें बेकार कर वो आज फिर घर के आंगन में बैठा मेरी ओर एक टक लगाए देख रहा है और ना जाने क्यूं आज मैंने ना तो उसे दुत्कारा है और ना ही डंडा ले कर भगाया है । उसकी एक टक निगाहें जो लगातार मुझे निहार रही हैं मैं भी उन्हें पढ़ने की कोशिश करने लगा हूं । आंखों के अथाह सागर में कई प्रश्न हैं जो मुहबाय खड़े बाहर निकलने को बेताब हैं किंतु प्रकृति ने मनुष्य की जुबान बोलने की शक्ति ना दे कर शायद उनसे ज्यादती की है । उसका पहला प्रश्न जो मुझे समझ में आया है कि ” हमें दुत्कारते क्यूं हो , हमारे साथ बुरा व्यवहार क्यूं करते हो ? हम अपने आप अपनी मर्जी से इस रूप में इस धरती पर नहीं आए । प्रकृति ने जिस प्रकार आपको पैदा किया है तो हमें भी पैदा किया है । अब प्रकृति ने ऐसा क्यों किया यह तो वही जानें किंतु कुछ तो ज्यादती हमारे साथ की ही है । अब देखो ना यदि उसने हमें भी मनुष्यों की तरह हाथ पांव दिए होते तो हम भी खेतीबाड़ी करके अन्न पैदा करते और अपने खाने पीने का प्रबंध करते किंतु ऐसा ना करके प्रकृति ने हमें मनुष्य का मोहताज बना दिया । अब देखो ने मेरे आपके घर के द्वार पर आने की आपको कितनी पीड़ा है जबकि मैं केवल एक रोटी की आशा ले कर यहां आता हूं और आपकी खरी खोटी सुन कर भूखा ही वापिस चला जाता हूं । दोस्तो बस , मैं उसकी आगे की बात नहीं सुन पाया , एक पल में ही मुझे मानों सब कुछ समझ आ गया है । अब हर रोज हमारे साथ साथ उसकी भी रोटी बनती है और उसे खाते देख कर एक तृप्ति का अहसास अपने आप ही मन में घर कर जाता है और मैं अनायास ही ऊपर की ओर आसमान में देखने लगता हूं ढूंढने लगता हूं उसे जिसे आज तक कभी किसी ने नही देखा ।

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