*’यादें’* :*क्या शिमला आज भी वैसा ही है :लेखक संजीव थापर पूर्व इलेक्शन अधिकारी*
क्या अब भी शिमला वैसा ही है जैसा मैं छोड़ के आया था । आज के शिमला में जमीन धसने , बड़ी बड़ी इमारतों के ताश के पत्तों की तरह धराशाही हो कर गिरने और लोगों की कर्ण भेदती चीखों पुकार ह्रदय में ना भरने वाला छेद कर रही
हैं दोस्तो । बादल भी उन्हें देख दो आंसू बहा लुप्त हो गए हैं और पीछे उन परिवारो के लिए छोड़ गए हैं कभी ना भरने वाले ज़ख्म । लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है जैसे कि इतनी ऊंची ऊंची इमारतों का निर्माण कैसे हुआ , जमीन धसने के क्या कारण हैं । शिमला जो सुविधाओं के हिसाब से पच्चीस हजार की आबादी के लिए ही संभवत बना था अढ़ाई लाख की आबादी को कैसे सहन करेगा , किसी ने नहीं सोचा । इस पर दोस्तो सोच विचार करने की जरूरत नहीं है क्योंकि हम ” हम नहीं सुधरेंगे ” वाली सोच से पहले से ही ग्रस्त हैं । मुझे शिमला में अपने बिताए वर्ष और दिन याद आ रहे हैं , वर्ष है 1985 , आप भी पढ़िए ।
थक हार कर अंत में मैं भी यहीं आ कर बैठ गया था , तभी किसी दोस्त नें आवाज़ लगाई थी ” अभी तो 6 ही बजे हैं , अभी बैठ गया थापर , आ जा लिफ्ट तक का एक चक्कर काट आते हैं ” । सुन कर दिमाग घनघना उठा था और गुस्से में मुझे सम्बोधित किया था ” 4 बजे से अब तक माल रोड़ , रिज और लकड़ बाज़ार के 10 चक्कर लगा चुके हो , क्या अब भी तुम्हारा दिल नहीं भरा , टांगों ने भी एक कदम आगे बढ़ने से मानों इंकार कर दिया था , यही हाल मेरे सभी अंगों का था । मैंने भी किसी बहाने अपनें मित्र को टाल दिया था और वहीं बैठा रहा था । ” मुझे ऐसे बैठे देख ‘मन’ नें मुझे तसल्ली दी थी और समझाने वाले अंदाज़ में बोला था , अब हर रोज़ माल रोड़ पर आने की क्या ज़रूरत है , वही लगभग 2 कि मी का चक्कर बस इसी के चक्कर काटते रहो , वही जाने पहचाने चेहरे जो तुम्हारी तरह हैं और बिना माल रोड़ आये नहीं रह सकते । वही गिनी चुनी 3 या 4 जगहें जहां तुम बैठते हो और वही घिसी पिटी बातें जो रोज़ करते हो । देखो भईया तुम अपना समय बर्बाद कर रहे हो , मेरा ‘मन’ मुझे मेरी माँ की तरह नसीहत दे रहा था और मैं चुपचाप बैठा सब सुन रहा था । तभी अचानक मेरे मन नें मुझसे कुछ ऐसा पूछ लिया था जिसके बारे में मैंने कभी सोचा ही ना था । अच्छा बताओ ” तुम्हारे अब शिमला में गिनती के दिन बचे हैं और यहां से जानें के बाद कहाँ जानें का और क्या करनें का इरादा है ” ? इस प्रश्न नें दोस्तो मेरी बोलती बंद कर दी थी , कभी मैं इस जगह को घूर कर देखता जहां सायं काल में 4-4 घण्टे बैठ कर मैनें बर्बाद कर दिये थे और शायद औरों नें भी किये हों कभी ‘ मन ‘ द्वारा पूछे प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करनें लगता था । ना जानें शिमला में इस जगह बैठने का क्या आकर्षण था कि जब तक वहां रहा यह जगह मुझसे नहीं छूटी । यहां बैठने का एक फायदा मुझे ज़रूर हुआ कि मुझे लोगों के चेहरे बड़ी अच्छी तरह से पढनें आ गये । दुख दर्द , हंसी खुशी , कष्ट विषाद आदि संवेदनाओं के बारे में मैनें यहीं बैठ कर जाना । मेरा मानना है कि मानवीय संवेदनाओं के बारे में इंसान को ज़रूर समझ होनी चाहिये नहीं तो समाज में कई तरह की विषम परिस्थितियां पैदा हो जायेंगी ।