*छलिया* लेखक विनोद वत्स की कलम से*
छलिया
लो एक साल और गया
इस बार अकेला नही गया
बल्कि ऐसी अनमोल चीज़ ले गया
जिसके खोने का दुख तमाम उम्र रहेगा
हँसी छीन ली, खुशी छीन ली,
मुस्कुराहट छीन ली, आहट छीन ली,
पीछे छोड़ गया डिजिटल बाते
जो हम व्हाट्सएप पर करते है।
अब तो ऑन लाईन का ज़माना है
और इस ज़माने में
हम ऑफ लाईन हो गये।
फिर सोचता हूँ अपना था क्या
सब नश्वर है सबको जाना है
जाने का तो एक बहाना है
माँ बाप गये भाई गया
अब उसको भी छीन लिया
जो जीने की तमन्ना थी
तू करता सब कुछ है
पर अपने पर नही लेता
कभी रिश्ते, कभी बीमारी, कभी मजबूरी ,कभी
जानबूझकर ,कभी अनजाने में सब
सब से वो कराता है
मूक होकर बातूनी कठपुतलीयो को नचाता है।
वाह रे परमात्मा
तू सबको रुलाता है
तू ही सबको हंसाता है
तेरे पासो से कोई ना बच पाता है
तू ही तो छलिया है
जो युधिष्ठिर के हाथों द्रोपदी को हरवाता हे
और खुद
चीरहरण में आकर उसकी लाज बचाता है
वाह रे कृष्णा
तू इसी लिये छलिया कहलाता है।
विनोद वत्स की कलम से