*कभी इंसानों से ऊंचा था बर्फ़ का कद,:-hemant Sharma*
कभी इंसानों से ऊंचा था बर्फ़ का कद
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फोटो शिमला के ऐतिहासिक रिज की है। कुछ दशक पहले यहां बर्फ़ का कद इंसानों से भी ऊंचा होता था। लेकिन साल दर साल इंसान का कद बढ़ता गया और बर्फ़ का घटता रहा। अब आलम यह है कि हल्की-फुल्की सफेद चादर के लिए भी लंबा इंतजार होता है। कई बार तो रिज बिना चादर के ही रह जाता है। इस बार आधी सर्दी बीत गई है लेकिन यहां बर्फ़ का नाम नहीं। चादर जैसा भी नहीं हुआ कुछ। कद की बात तो दूर। हल्के से फाहे कुछ दिन पहले गिरे थे लेकिन टिके नहीं। हमारे समय की बात करें तो 1990 में यहां 5 फुट से ज्यादा बर्फ़बारी हुई थी। तब मैं स्कूल में पढ़ता था। उसके बाद ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं बना।
प्रकृति के खिलाफ जाने का खा़मियाजा हमेशा इंसानों को भुगतना पड़ा है। लेकिन हम लोग फिर भी नहीं मानते। जनसंख्या बढ़ी हैं तो निर्माण भी उस हिसाब से बढ़ते रहे हैं। बेतरतीब। कहीं कोई सिस्टम नहीं। उससे भी ज्यादा बढ़ी है हम इंसानों की भूख। यही कारण है कि प्रकृति हर मौसम बदलती जा रही है। सर्दी में बर्फ़बारी नहीं होती। बरसात में बारिश उस तरह नहीं होती। बरसात कम होती है तबाही की खबरें ज्यादा आती हैं। गर्मी में या तो गर्मी ही नहीं होती या भीषण गर्मी होती है।
प्रकृति के इस खतरनाक बदलाव पर हम-आप अब चिंता तो करते हैं लेकिन इसके आगे कुछ नहीं करते। बदलाव भी देखें कि बर्फ़ रिश्तों पर तो लगातार जमती जा रही है। जहां जमनी चाहिए वहीं नहीं जमती। किसी शायर ने कहा है-
वो जिस ने ढाल दिया बर्फ़ को शरारे में
मैं कब से सोच रहा हूँ उसी के बारे में
न जाने नींद से कब घर के लोग जागेंगे
कि अब तो धूप चली आई है ओसारे में..
लेखक :-हेमंत शर्मा