*मैं संजय*कविता लेखक विनोद शर्मा वत्स*
मैं संजय
सुनसान शहर
नंगी सड़के
उस पर बेतहाशा
भागते चप्पल जूते पहने
छोटे पावँ बड़े पावँ , बूढे पावँ
कुछ पावँ नंगे
बिना चप्पल के
दौड़ते चले जा रहे हैं
कुछ पावँ छिप रहे हैं
कुछ घबरा कर गिर रहे हैं
बगल की गंदी नाली में
कयास है ये मेरे दिल का
आंधी आई है झगड़ो की
फिर दोनों तरफ़
शामशीरे उठेगी
झंडे और टोपी लड़ेंगे
एक भीड़ चिल्लायेगी अल्लाह हो अकबर
दूजी चिलायेगी
जय शिव शंकर
उन्मांद दिखेगा चीलों में
सड़के
बदन के कटे अंगों से
भरी नज़र आयेगी
कही आग
कही जलती लाशें
कही अधकटी सांसे
चिल्लाती नज़र आयेगी।
बीच मे कही
टूटी चूड़ियां
पाजेब या दुपट्टे में लिपटी
कही कोई सुहागन नज़र आयेगी
जिसकी माँग का सिंदूर मुस्कुरा रहा हैं
डोली लेने आयेगी
फिर सायरन गूंजेंगे
सड़को पर
फौजी जूतों की भीड़
बड़े फौजी ट्रकों से उतरकर
खट खट करके
सारे शहर पे कब्ज़ा जमायेगी
दंगाई गायब हो जायेगे
खादी के दौरे बढ़ जाएंगे
फिर मुवावजे बांटे जायेगे
कुछ को मिलेंगे
कुछ बिचोलिये हज़म कर जायेगे
अखबारों की चांदी होगी
मीडिया वालों को
नई कहानी मिल जायेगी
जिससे उनकी टी आर पी बढ़ जायेगी
सोशल मीडिया पर
श्रधांजलि की बाढ़ आ जायेगी
पुलिस फिर झगड़े की जड़ तक जायेगी
दंगा क्यों हुआ? कैसे हुआ ?
किसने पहले शरू किया?
इस पर
सरकार एक कमेटी बनायेगी
कुछ पकड़े जाएंगे
कुछ पकड़वा दिये जायेंगे
लोग कितने मरे
ये आंकड़े गिनवा दिये जाएँगे
और मैं
संजय की तरह
आधुनिक महाभारत का
आंखों देखा हाल
धृतराष्ट्र को बताता रहूँगा
जब तक शहर
शमशान नही बन जाता
मैं संजय बनके
खबरे सुनाता रहूँगा।
सच क्या है
ये धृतराष्ट्र की आंखों से दिखाता रहूँगा।
विनोद शर्मा वत्स