*किस्सा कुर्सी का।लेखक संजीव थापर*
किस्सा कुर्सी का
दोस्तो जब सपने टूटते हैं तो बहुत पीड़ा होती है , उदासियों के साथ साथ मायूसी भी घर कर जाती है । अब देखिए ना इन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कोई उनकी “सत्ता की कुर्सी” इस तरह धीमे से खींच लेगा और वे अचंभित से स्टाक से धरा पर आ गिरेंगे । उन्हें अपने गिरने का इतना दर्द नहीं है जितना “सत्ता की कुर्सी” का खिसक जाने का है । राजनीति में किसी भी दल द्वारा सत्ता खोने पर एक दुर्लभ स्थिति आती है जिसमें सत्ता खोए भूतपूर्व शासक स्वयं के अवलोकनार्थ (ऐसा कहा जाता है) आम जनमानस से दूरी बना लेते हैं । अब इस स्थिति में कई जानकारों का तो कहना है कि गुजरे दिनों में लोगों के दर्शनार्थ घर घर जा कर जो अलख जगाया है उसकी थकान उतारते हैं और कुछ अगले पांच साल सत्ता से वंचित हो कैसे बीतेंगे पर घोर मंत्रना करते हैं । ध्यान रहे इन दिनों इनके मुख पर उदासी और मायूसी लगातार बनी रहती है । अब हमारे प्रदेश में भी सत्ता परिवर्तन हुए लगभग 18 दिन बीत चुके हैं । जैसे सोचा था वैसे ही इनमें से किसी के भी दर्शन अभी तक नहीं हो पाए हैं । फेस बुक भाग्यशाली है जहां इक्का दुक्का ने पहुंच कर अपना दुखड़ा रोया है । उनका दुखड़ा सुन कर आंखों में पानी भर आया है जो तब भी नहीं आया था जब मैं प्रेप क्लास में फेल हो गया था । दोस्तो यह दौर गुजर जाने के बाद एक और “लांछन दौर” आयेगा जिसमें पार्टी के धुरंधर हारने का ठीकरा एक दूसरे पर थोंपेंगे । इस दौर को
“जलीकटी दौर” भी कहा जा सकता है । आम जनमानस इस दौर का बड़ा बेसब्री से इंतजार करता है क्योंकि इसमें बॉक्सिंग की रिंग की मानिंद वार्तालाप रूपी ज़हर बुझे तीरों का प्रहार एक दूसरे पर किया जाता है जिसमें सभी पक्ष घायल होते हैं । दोस्तो यह भी सत्य है कि चाहे एक दूसरे पर कितने भी प्रहार कर लें किंतु अंत में हाई कमांड मरहम बन कर आता है और फिर गलबाहियां हो जाती हैं । हर पांच साल के दौर में यही दौर बार बार आते हैं और लोकतंत्र धीमी गति से , आंखे बन्द किए , आगे बढ़ता जाता है अनजान मुकाम की ओर ।