Editorial:-“कैसे कुछ क्लास-3 कर्मी अमीर और प्रोफेसर गरीब?”


“कैसे कुछ क्लास-3 कर्मी अमीर और प्रोफेसर गरीब?”

📰 संपादकीय | ट्राई सिटी टाइम्स
जब पद छोटा और संपत्ति बड़ी हो जाए
किसी भी सभ्य समाज में पद और प्रतिष्ठा का संबंध योग्यता और योगदान से होता है। लेकिन आजकल की व्यवस्थाएं एक अलग ही कहानी कहती हैं—यहां पद भ
ले क्लास-3 का हो, पर अगर पहुँच ‘प्रभावशाली’ हो और जेब में दौलत ठसाठस भरी हो, तो वही समाज में ‘विकास’ का प्रतीक बन जाता है।
देखिए, पालमपुर की बात करें या शिमला, मंडी, धर्मशाला की—कृषि विश्वविद्यालय या केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कार्यरत प्रोफेसर और वैज्ञानिक सरकारी ढांचे में सचिव स्तर की तनख्वाह पाते हैं। एक प्रोफेसर 35 वर्षों की सेवा में दो बच्चों को पढ़ाकर, एक मिड सेगमेंट कार खरीदकर, किसी कस्बे में 10-15 मरले ज़मीन लेकर संतुष्ट हो जाता है। ईमानदारी उसकी नीति होती है, जीवनभर का धन नहीं।
उदाहरणार्थ:-
पालमपुर स्थित एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर स्तर के शिक्षक, जिनकी मासिक तनख्वाह राज्य सचिवों से भी अधिक होती है, जीवनभर की ईमानदारी से अधिकतम एक दोमंज़िला मकान बना पाते हैं, एक मिड सेगमेंट कार चला पाते हैं, और बच्चों को साधारण शिक्षा दिलवा पाते हैं। अगर पति-पत्नी दोनों ही प्रोफेसर हों, तब भी चंडीगढ़ में एक फ्लैट, बच्चों की पढ़ाई और शादी के बाद 20-30 लाख की बचत ही उनकी कुल संपत्ति बनती है।
क्यों? क्योंकि उनके पास ‘ऊपरी कमाई’ का कोई रास्ता नहीं। न रिश्वत, न टेंडर, न रजिस्ट्रियां, न पोस्टिंग का खेल।
इसके उलट, कई विभागों के कुछ चंद क्लास-3 कर्मचारी ऐसे मिल जाएंगे जिनकी संपत्ति प्रोफेसर से 5- 10 गुना ज़्यादा है।
अब ज़रा एक नज़र उन विभागों पर डालिए जहाँ ट्रांसफर-पोस्टिंग, टेंडर, निर्माण, रजिस्ट्रियां, लाइसेंस, माप-तौल, सप्लाई या कराधान से जुड़े काम होते हैं। इन विभागों में तैनात एक साधारण क्लास-के कर्मचारी की संपत्ति किसी IAS अफसर या प्रोफेसर को भी शर्मिंदा कर दे।
चंडीगढ़, पंचकूला और मोहाली में फ्लैट्स
गाँव में कनालों की ज़मीन
दो-तीन महंगी गाड़ियाँ
बच्चों की पढ़ाई और करोड़ों की शादी
फर्क सिर्फ एक है: एक ईमानदार है, दूसरा ‘प्रगतिशील’—काली कमाई में।
विडंबना यह है कि समाज ने अब पद और कर्म को नहीं, बल्कि बैंक बैलेंस और लाइफस्टाइल को प्रतिष्ठा का पैमाना बना लिया है।
जिस प्रोफेसर ने हजारों छात्रों का भविष्य संवारा, उसे “बेचारा” कह दिया जाता है।
और जिस बाबू ने हर फाइल के नीचे कुछ “हरियाली” लेकर पास किया, उसे “समझदार” माना जाता है।
समस्या सिर्फ व्यवस्था की नहीं, समाज की सोच की भी है। हम बच्चों को मेहनत और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं, लेकिन सफल वही कहलाता है जो सिस्टम को ‘चलाना’ जानता है।
एक देश और समाज तब कमजोर होता है जब उसके सबसे पढ़े-लिखे, सर्वाधिक योग्य और सबसे ईमानदार नागरिक—किसी क्लास-3 बाबू से भी कम साधनों में जीवन काटते हैं।
अगर यही रफ्तार रही, तो शिक्षा सेवा में कौन आएगा?
कौन शोध करेगा? कौन शिक्षक बनेगा?
यह कोई आर्थिक असमानता नहीं, यह नैतिक दिवालियापन है। सरकारें लोकपाल और सतर्कता आयोग बनाकर सिर्फ ‘जांच’ करती रहेंगी, जब तक समाज खुद यह तय न करे कि पद का सम्मान संपत्ति से बड़ा होना चाहिए।
यह सिस्टम की बीमारी नहीं, यह समाज की सोच की बीमारी है।
हमने ईमानदारी को ‘अकुशलता’, और भ्रष्टाचार को ‘व्यावहारिकता’ मान लिया है।
अब समय आ गया है कि हम आत्मावलोकन करें—
क्या हम एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जहाँ मेहनत, शिक्षा और पद का कोई अर्थ नहीं,
या फिर वह समाज जो ईमानदारी को सम्मान, और बेईमानी को तिरस्कार देता है? ऐसा नहीं है कि सभी जगह करप्शन है हर विभाग में ईमानदार कर्मचारी अधिकारी मौजूद रहते हैं लेकिन इस करप्ट सिस्टम में नकारखाने में तूती की कौन सुनता है? उनके ईमानदारी धरी की धराई रह जाती है! लेकिन एक बात पक्का है कि कर्मचारी क्लास वन हो या क्लास 4 ईमानदारी की कमाई से वह केवल अपना जीवन यापन कर सकता है कोई लैविश जीवन नहीं जी सकता ना ही अकूत संपत्ति बना सकता है।