*’किताब’ हिंदी दिवस पर एक रचना**विनोद वत्स*
किताब
तुम एक किताब हो ।
तुम्हारे अंदर के लफ्ज़ ।
गुनगुनाते हे बुदबुदाते हे मुस्कुराते हे ।
जब कभी इस किताब को ।
खोलना चाहता हूँ ।
तो किताब के अंदर के लफ्ज़ ।
मुझसे नाराज़ हो जाते हे ।
और आक्रोश में आकर ।
भूख हड़ताल के लहजे में ।
मेरे सामने चिल्लाते हे ।
तुम इस किताब को पढने लायक नहीं हो ।
क्यों की तुम नायक नहीं हो ।
इस किताब को पढने का हक ।
किसी और को हे ।
ऐसा सुनकर ।
में उदास होकर ।
किताब बंद कर देता हूँ ।
लेकिन किताब के अंदर के कुछ ।
सीनियर लफ्ज़ ।
अंदर से दरवाज़ा खटखटाते हे ।
समझाते हे बुलाते हे याद दिलाते हे ।
की तुम मेक्डोनाल्ड नहीं ले जा सकते ।
तुम पिज़ा नहीं खिला सकते हे ।
तुम रिचार्ज नहीं करा सकते ।
तुम पिचर नहीं दिखा सकते ।
तुम डिस्को नहीं जा सकते ।
क्यों की तुम ।
साधरण इंसान हो ।
सुबह से शाम
गधे की तरह सामान ढोने का सामान हो ।
तुम बीवी की पसंद का कमाऊ नोकर हो ।
तुम बच्चो का हथियार हो ।
तुम अपने माँ बाप के लिए
बेकार हो
बीती उम्र का बेजार हथियार हो ।
लाख तुम कविता लिखने में माहिर हो ।
मगर जिन्दगी की कविता में
तुम बेकार हो ।
बेकार हो बेकार हो ।
विनोद वत्स की कलम से
[1/10, 6:22 PM] Writer Vinodsharma: हिंदी दिवस पर एक रचना