*मैंने अब आंखें पढ़ना सिख लीं हैं:- लेखिका तृप्ता भाटिया*
*मैंने अब आंखें पढ़ना सिख लीं हैं:- लेखिका तृप्ता भाटिया*
यह आंखे जिन पर सजी पलकें झुका कर अभिनदंन किया जाता, इनको झपका कर स्वीकृति का इज़हार भी किया जाता है। इनमें झांकें तो प्रेम क्रोध, लोभ और न जाने कितने किस्सों का आईना हैं यह। बस जिसने सामने वाले कि निगाहें पहचान ली तो व्यक्त्वि पहचान लिया।
कभी कभी दिल चाहता है हक़ीक़त से आंख चुराने के लिए आंखें मूंदे रहें।
बचपन में जब चोट लगा करती थी, मां कहती थीं आखें बंद कर लो, और चोट जहाँ लगी होती थी फूंकती थी ये कहकर कि अभी ठीक हो जाएगा। धीरे धीरे यक़ीन सा आ गया कि आंख बंद कर लेने से दर्द कम हो जाता है। इतना यक़ीन था उस ट्रिक पर कि जितना ज़्यादा दर्द होता था उतनी तेज़ आंख मींच लेते थे।
आज कोई परेशानी होती है तो मां से नहीं बताते और न वो आंख मूंद लेने से ख़त्म हो जाती है। हम हक़ीक़त से कितना ही भाग लें, आंख मूंद लेने भर से वो नहीं बदलती। एक न दिन सामना करना ही पड़ता है। सब कुछ जानते समझते हुए भी बेबस खड़े तमाशा देखने से अज़ीयतनाक कुछ भी नहीं होता।
मैंने अब आंखें पढ़ना सिख लीं हैं जबसे यह हुनर आया है, ज़िन्दगी आसान सी होगयी है! जो देखने लायक है उसे भीतर तक उतार कर देखा और जो नहीं तो आंखे मूंद ली अब महसूस होता है कि इंसान जो कह रहा है अगर आंखे साथ दें तो सच है और न दें तो झूठ! अब किसी मापदण्ड की जरूरत नहीं रहती बस किसी को पहचानना है तो जुवां आंखें और चेहरे के तालमेल से अनुभूति हो जाती है! अब जिस दौर से अब हम गुज़र रहें इतनी ही इच्छा रहती है कि यह आंखें सुबह उठते ही अच्छा-अच्छा देखे और रात को बंद होते भी कुछ ऐसा ही देखें कि मुस्कान अपने-आप आ जाये! अब इन आँखों से बहुत से लोग उतर चुके हैं और बहुत से चढ़े हैं फिर भी इन आँखों को अब मुस्कराने की आदत हो गयी है क्योंकि बहुत देर आंसुओं का बजन उठना इनको अब गवारा नहीं है।