पाठकों के लेख एवं विचार

*क्या बनने आये थे क्या बन गए* विनोद वत्स*

 

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क्या बनने आये थे क्या बन गए।
रास्तों में भटक के रास्ता बन गए।
वो आरज़ू वो तमन्ना वो ख़्वाहिशें।
हालात के हाथों रेत सा बिखर गए।
आईने ने कई बेर समझाया नही समझे।
जिद के आगे आईने सा चटक गये।
ख्वाहिशें रंग बदल के रंग दिखाती रही।
वो ख्वाब जो हक़ीक़त में भवँर बन गए।
अब जाके समझ आई उसकी अदा।
वो जो बनाना चाहवे था वही बन गए।
मेहनत मशक्कत सब करे है जिंदगी में।
मगर उसने जिसको चाहा ख़ुदा बन गए।

विनोद वत्स

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