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विश्लेषण :क्या हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में अभी से मुख्यमंत्री के लिए रेस शुरू हो गयी है :-शिमला/शैल।

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क्या प्रदेश कांग्रेस में अभी से मुख्यमंत्री के लिए रेस शुरू हो गयी है
शिमला/शैल। हिमाचल कांग्रेस के लिए 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद यह 2021 के उप चुनाव जीतना एक बहुत बड़ी जीत है। शायद इतनी जीत की उम्मीद कांग्रेस को भी नहीं थी। इन उपचुनावों में सरकार भाजपा और कांग्रेस सभी के आकलन फेल हुये हैं। यदि कांग्रेस को उम्मीद होती कि वह मंडी का लोकसभा उपचुनाव जीत जायेगी तो शायद प्रतिभा सिंह की जगह कॉल सिंह या सुखराम का पौत्र आश्य शर्मा यहां से उम्मीदवार होते। प्रतिभा सिंह को अर्की से विधानसभा ही लड़नी पड़ती और वह इंकार न कर पाती। यदि राष्ट्रीय स्तर पर बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य को पंडित सुखराम थोड़ा सा भी समझ पाते तो अनिल शर्मा 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा और उसकी विधायकी छोड़कर कांग्रेस में जा चुके होते। यह सब इस समय इसलिए प्रसांगिक है क्योंकि अभी भी सभी पक्षों के नेता गण जन आकलन नहीं कर पा रहे हैं।
कांग्रेस में चारों उपचुनाव जीतने के बाद अभी से अगले मुख्यमंत्री के लिए रेस लग गयी है। इस रेस के संकेत हॉली लॉज में पिछले दिनों हुये आयोजन से उभरने शुरू हो गये हैं। प्रतिभा सिंह की जीत के बाद जिस तरह से कुछ लोग उन्हें जीत की बधाई देने पहुंचे और इस जीत पर जिस तरह से भोज दिया गया तथा कांग्रेस ऑफिस से बाहर पत्राकार सम्मेलन का आयोजन किया गया उससे यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि वह अब प्रदेश कांग्रेस की धुरी बनने की भूमिका में आ गयी है। इसी से एक वर्ग उन्हें अभी प्रदेश का अध्यक्ष बनाने की योजना में लग गया है। लेकिन यह वर्ग भूल गया है कि जो लोग उन्हें बधाई देने पहुंचे वह पूरे प्रदेश का नहीं वरन एक क्षेत्रा विशेष का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन जैसे ही यह संकेत सामने आये की वह प्रदेश कांग्रेस का केंद्र होने कीओर बढ़ रही हैं तभी दिल्ली में उनके शपथ ग्रहण समारोह में सारे बड़े नेता नहीं पहुंचे और वहीं से कांग्रेस की एकजुटता पर सवाल उठने शुरू हो गये। प्रतिभा सिंह को वीरभद्र सिंह बनने में समय लगेगा। यह वीरभद्र सिंह ही थे जो अपने विरोधी की योग्यता की भी कदर करते थे। लेकिन उन्ही वीरभद्र सिंह को सुखबिन्द्र सुक्खु को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाने के लिये आनंद शर्मा, आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री का साथ लेना पड़ा। इसका परिणाम हुआ की कुलदीप राठौर को अध्यक्ष बनाना पड़ा।
लेकिन कुलदीप राठौर को 2019 के लोकसभा चुनाव और इन चुनावों के कारण आये दो विधानसभा चुनावों में संगठन के सारे बड़े नेताओं का कितना सहयोग मिला वह स्वःवीरभद्र सिंह के उसी ब्यान से स्पष्ट हो जाता है जब उन्होंने यहां तक कह दिया था की मंडी से कोई भी मकर झंडू चुनाव लड़ लेगा। इस तरह की राजनीतिक परिस्थितियों से निकलकर कुलदीप राठौर की प्रधानगी में ही सोलन और पालमपुर की नगर निगमों में कांग्रेस को जीत हासिल हुई। यही जीत अब उपचुनावों में सामने आ गयी। जबकि इसी दौरान राठौर के राजनीतिक संरक्षक माने जाने वाले आनंद शर्मा का नाम कांग्रेस के असंतुष्ट के जी -23 के ग्रुप का एक बड़ा नाम बनकर सामने आ गया। इस समय कांग्रेस की जीत के श्रेय से कुलदीप राठौर के नाम को हटाना जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं देगा। जब कुलदीप राठौर पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 12 करोड़ के फर्जी बिल बनाकर हाईकमान को भेजने का आरोप लगाया था तब भी कांग्रेस के बड़े नेता उनके पक्ष में नहीं आये थे।
अभी प्रदेश कांग्रेस को वीरभद्र के समय में बने वीरभद्र ब्रिगेड के साथ जुड़े नेताओं कि संगठन में स्थापना के मुद्दे का भी सामना करना पड़ेगा। इसकी पहली जिम्मेदारी प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह पर आयेगी। यह वीरभद्र की रणनीति रहती थी कि वह कई जगह समानांतर सत्ता केंद्र खड़े कर देते थे। लेकिन आज क्या प्रदेश कांग्रेस में इस सामर्थय का कोई नेता है शायद नहीं। फिर चारों उपचुनाव हारने से जो फजीहत भाजपा और जयराम सरकार की हुई है उससे उबरने के लिए भाजपा भी कुछ कदम तो उठायेगी ही। इसमें केंद्र से लेकर राज्यों तक भाजपा सरकारें जांच एजेंसियों का ही सबसे पहले उपयोग करती आयी है। बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में भाजपा कांग्रेस के खिलाफ सौंपे अपने आरोप पत्रों पर कुछ कार्रवाई करने का प्रयास करे। ऐसे में इस समय यदि कांग्रेस में मुख्यमंत्री की रेस अभी से शुरू हो जाती है तो वह संगठन और प्रदेश के हित में नहीं होगी। प्रदेश में पहले से ही स्वर्ण आयोग का भूत सक्रिय हो गया है और विक्रमादित्य सिंह तक इसकी छाया पड़ चुकी है। यहां यह स्मरण रखना होगा कि केंद्र ने क्रीमी लेयर की सीमा 8 लाख करने के बाद उस पर उठने वाले सवालों का रुख मोड़ने के लिए ही इस भूत को जगाया है। बल्कि आने वाले दिनों में भाजपा के बजाय कांग्रेस से लड़ने के लिए आम आदमी पार्टी और टीएमसी भी मैदान में होंगी। क्योंकि जिन कारपोरेट घरानों के इशारे पर कृषि कानून लाये गये थे अब इन कानूनों की वापसी के बाद इन घरानों का रुख टीएमसी की ओर मुड़ गया है। ममता बनर्जी और गौतम अडानी की मुलाकात से इसकी शुरुआत हो चुकी है। प्रदेश कांग्रेस को इन आने वाले खतरों के प्रति अभी से सावधान होना होगा।

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