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*इरफान जामियावाला पसमांदा दलित मुसलमानों की आवाज़ और भारत में जातिवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध का प्रतीक*

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पसमांदा दलित मुसलमानों की आवाज़ और सामाजिक न्याय की लड़ाई”

इरफान जामियावाला: पसमांदा दलित मुसलमानों की आवाज़ और भारत में जातिवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध

भूमिका

भारतीय मुस्लिम समाज को अक्सर एक एकसमान धार्मिक समुदाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परंतु इस सतही एकरूपता के भीतर एक जटिल जातीय संरचना मौजूद है—जिसमें अशराफ, अजलाफ, और अरज़ल की श्रेणियां सदियों से व्याप्त हैं। इस सामाजिक अन्याय के विरुद्ध जो आवाज़ सबसे मुखर होकर उभरी, वह थी इरफान जामियावाला की। उन्होंने पसमांदा दलित मुसलमानों के हक़, पहचान, और प्रतिनिधित्व के लिए एक वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन खड़ा किया।

प्रारंभिक जीवन और सोच की नींव

इरफान जामियावाला का जन्म एक पसमांदा मुस्लिम परिवार में हुआ था, जहाँ उन्होंने बचपन से ही भेदभाव और जातिगत अलगाव का अनुभव किया। उन्होंने धार्मिक शिक्षा के साथ सामाजिक इतिहास का भी गहन अध्ययन किया और यह समझा कि मुस्लिम समाज में जातिवाद की जड़ें केवल पवित्र ग्रंथों से नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना से आई हैं।

उनकी सोच पर सैयद अली अनवर, रंगनाथ मिश्र आयोग, और सच्चर समिति की रिपोर्टों का गहरा असर पड़ा।

राजनीतिक सक्रियता और संगठनों की भूमिका

1. ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ (AIPMM) से जुड़ाव

हालांकि यह संगठन मूलतः अली अनवर ने बनाया था, लेकिन इरफान जामियावाला ने इसे निचले स्तर तक कार्यकर्ता-आधारित आंदोलन बना दिया। उन्होंने इसे बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में फैलाया।

2. दलित मुस्लिम फ्रंट (DMF) और अन्य मंच

उन्होंने ऐसे मंचों की स्थापना की जहाँ अरज़ल जातियों—जैसे हलालखोर, नट, बंजारे, धुनिया, कूनबी, भांगी मुस्लिम, आदि—को एकजुट किया गया। उन्होंने मांग की कि इन्हें अनुसूचित जातियों (SC) में शामिल किया जाए और जातिगत आरक्षण मिलना चाहिए।

वैचारिक हस्तक्षेप और लेखनी

इरफान जामियावाला ने अनेक लेखों, पर्चों और भाषणों के माध्यम से यह बताया कि जातिवाद केवल हिंदू समाज की बीमारी नहीं है। उन्होंने पसमांदा मुसलमानों के साथ हो रहे छुआछूत, कब्रगाहों में भेदभाव, और मस्जिदों में सामाजिक अस्पृश्यता जैसे मुद्दों को सामने रखा।

उनके विचारों में एक प्रमुख वाक्य बार-बार आता है:

> “हम पसमांदा हैं, न तो सैयद हैं, न शेख। हम वो हैं जिन्हें आप कभी ‘भंगी’, ‘मेहतर’, ‘धोबी’, ‘धुनिया’ कहकर मंदिरों से बाहर करते थे, और अब मस्जिदों से भी।”

बिहार, दिल्ली और महाराष्ट्र में सक्रियता

✅ बिहार

उन्होंने बिहार के पिछड़े जिलों—दरभंगा, मधुबनी, मुजफ्फरपुर—में दलित मुस्लिम पंचायतें आयोजित कीं।

Nitish सरकार के दौर में उन्होंने मांग की कि OBC आरक्षण में पसमांदा मुसलमानों को अधिक भागीदारी दी जाए।

✅ दिल्ली

जामिया और AMU जैसे संस्थानों में से पसमांदा छात्रों को आवाज़ देने का काम किया।

2023–24 के दौरान जंतर-मंतर पर पसमांदा अधिकार रैली का नेतृत्व किया।

✅ महाराष्ट्र

मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्र के मुस्लिम दलितों के साथ काम किया।

SC Status for Dalit Muslims आंदोलन में BAMCEF और अन्य दलित संगठनों के साथ गठजोड़ किया।

JPC और नीति निर्माण में भागीदारी

इरफान जामियावाला ने संविधान संशोधन, आरक्षण नीति, और रंगनाथ मिश्र रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने के लिए कई JPC (Joint Parliamentary Committee) मीटिंग्स में हिस्सा लिया।

उन्होंने SC मुस्लिम की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका समर्थन का अभियान चलाया।

प्रो. फ़िरोज़ मंसूरी और विचारधारा का विस्तार

प्रो. फ़िरोज़ मंसूरी उनके वैचारिक सहयोगी बने। उन्होंने अकादमिक स्तर पर इरफान की बातों को वैधता दी।

दोनों ने मिलकर “दलित मुस्लिम विमर्श” को एक अकादमिक अनुशासन के रूप में स्थापित करने की दिशा में काम किया।

इरफान की प्रमुख मांगें और घोषणाएं

1. SC Status for Dalit Muslims

2. AMU, JMI जैसे संस्थानों में पसमांदा आरक्षण

3. मदरसा सुधार में पसमांदा भागीदारी

4. जातीय जनगणना में मुस्लिम जातियों की सूचीबद्धता

5. कब्रिस्तान, मस्जिदों में बराबरी का अधिकार

6. शरिया लॉ के पुनर्पाठ में पसमांदा दृष्टिकोण

निष्कर्ष: पसमांदा की लड़ाई में एक क्रांतिकारी नाम

इरफान जामियावाला सिर्फ एक सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि एक आंदोलन हैं। उन्होंने यह साबित किया कि धार्मिक एकता की आड़ में छिपे जातीय उत्पीड़न को बेनकाब किए बिना कोई सामाजिक न्याय संभव नहीं है। उन्होंने पसमांदा दलित मुसलमानों को न केवल पहचान दी, बल्कि उन्हें लड़ने की आवाज़ भी दी।

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